Sunday, December 9, 2012

कहीं आप शैतान की चाल के शिकार तो नहीं हो गए हैं ?



सारे झगड़ों की बुनियाद जहालत है और इनका ख़ात्मा इल्मो-हिकमत (Knowedge & Wisdom) से ही हो सकता है।
अल्लाह का एक नाम हकीम है, अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्ल्म का एक ख़ास काम हिकमत सिखाना भी था। उन्होंने क़ुरआन दिया। क़ुरआन अल्लाह का कलाम है और यह किताबे हिकमत है। इसलाम में हिकमत पर बड़ा जोर है। हिकमत अगला दर्जा है, हिकमत से पहले इल्म का दर्जा है। जानने का नाम ‘इल्म‘ है और उसे बेहतरीन ठंग से बरतने का नाम ‘हिकमत‘ है। अल्लाह की तरफ़ से पहली वही का पहला लफ़्ज़ ‘इक़रा‘ यानि पढ़ है।
मुसलमान आज इल्म से भी कोरा है और हिकमत से भी। जिसे इस बात में शक हो तो वह इसे टेस्ट कर सकता है। कलिमे ‘ला इलाहा इल्लल्लाह, मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह‘ से ही ख़ुद को परख कर देख लीजिए। सभी जानते हैं कि इसलाम की तालीम यह है कि अल्लाह की ज़ात व सिफ़ात में और उसके अफ़आल (कामों) में किसी मख़लूक़ को शरीक न करो।
क्या आप अल्लाह की ज़ात व सिफ़ात और अफ़आल को जानते हैं ?
क्या आप जानते हैं कि आपकी किस बात से अल्लाह की ज़ात (हस्ती) में, उसकी सिफ़तों (गुणों) में और उसके अफ़आल (कामों) में शिर्क हो सकता हैं ?
’मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह‘ कहने का मतलब है, हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्ल्म के रास्ते पर चलना। उनके दिखाए रास्ते पर चलने के लिए उनकी ज़िंदगी के हालात मालूम होना बहुत ज़रूरी है।
क्या कभी आपने उनकी सीरत (जीवनी) पढ़ी है ?
क्या आप जानते हैं कि हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्ल्म कब पैदा हुए ?
जब उनकी वालिदा का इंतेक़ाल हुआ, तब वह कितने साल के थे ?
उन्होंने पहला निकाह कब किया, दूसरा निकाह पहले निकाह के कितने साल बाद किया और उनके कुल कितने बच्चे हुए, उनके बच्चों का निकाह किस किस से हुआ और वे कितने साल ज़िंदा रहे और उन्होंने अल्लाह के दीन की ख़ातिर क्या क्या क़ुरबानियां दीं ?
क्या आप जानते हैं कि अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्ल्म की बीवियां उम्मत के तमाम मोमिनीन की माएं हैं ?
क्या आप जानते हैं कि उम्मुल मोमिनीन ने अपनी ज़िंदगी में क्या किया, उनमें सबसे पहले किसकी वफ़ात हुई और सबसे बाद में किसकी ?
अगर आप यह सब नहीं जानते तो क्या आपको यह सब जानने की ज़रूरत नहीं है या इन बातों को जाने बिना आपको दीन का इल्म और हिकमत हासिल हो सकता है ?
जिसके पास इल्मो हिकमत न हो, उसे शैतान आसानी से अपने जाल में फंसा लेता है। शैतान इंसान को इंसान से लड़वाता है। आप देखेंगे कि अल्लाह और उसके रसूल स. के नाम पर मुसलमान आपस में लड़ रहे हैं। अगर आप भी किसी के खि़लाफ़ लड़ रहे हैं तो प्लीज़ चेक कीजिए कि कहीं आप शैतान की चाल के शिकार तो नहीं हो गए हैं ?

Wednesday, December 5, 2012

दीन को मज़हब और मज़हब को पेशा बनाकर अवाम को गुमराह करने वाले, उसे लूटने वाले उलमा और पीरों की हक़ीक़त-एक रिपोर्ट Sayyed Abdullah Tariq

Allama S. Abdullah tariq sahab Masjid me Namaze Juma ada karane ke baad, 1 

Allama S. Abdullah tariq sahab Masjid me Namaze Juma ada karane ke baad, 2 

Allama S. Abdullah tariq sahab Masjid me Namaze Juma ada karane ke baad, 3

Dr. Anwer Jamal Yusuf Zai with Allama S. Abdullah tariq sahab 30 November 2012
अल्लामा सैयद अब्दुल्लाह तारिक़ साहब रियासत रामपुर में रहते हैं और दीन का काम करते हैं। इसलाम को उन्होंने ‘डिस्कवर‘ किया है। इसलाम को डिस्कवर करने का मतलब यह है कि उन्होंने बरसों बरस इसलाम को समझने में लगाए हैं और जब वह समझ गए तो फिर उन्होंने अपनी ज़िंदगी दीन को समझाने के लिए ही वक्फ़ कर दी। पिछले 25 बरसों से वह यह काम कर रहे हैं। बिना किसी भेदभाव के वह दीन के सच्चे स्वरूप का ज्ञान सबको दे रहे हैं। इससे हिंदू और मुसलमान ही नहीं बल्कि ईसाईयों और दूसरे मत-संप्रदायों के मानने वालों में भी दीन-धर्म की सही जानकारी आम हो रही है। नफ़रतें और दूरियां कम हो रही हैं।

अल्लामा सैयद अब्दुल्लाह तारिक़ साहब ने पाया है कि इसलाम सलामती का दीन है। समाज की या किसी फ़र्द की सलामती को ख़तरा पैदा हो जाए, ऐसा कोई भी काम करने के लिए इसलाम नहीं कहता। आतंकवाद में मासूम नागरिकों का ख़ून बहाना तो दूर इसलाम तो मैदाने जंग में भी औरतों, बच्चों, सन्यासियों और हथियार डालने वालों पर वार करने से मना करता है। 
इसलाम एक दीन है। दीन का अर्थ है एक व्यवस्था और एक क़ानून । यह व्यवस्था और क़ानून पैदा करने वाले रब की तरफ़ से हरेक के लिए मुक़र्रर है। जब आदमी इस व्यवस्था और क़ानून को भूलकर अपने नेताओं और गुरूओं की व्यवस्था और क़ानून पर चलने लगता है या अपने मन की मर्ज़ी के मुताबिक़ ज़िंदगी गुज़ारने लगता है तो लोग परेशानियों के शिकार हो जाते हैं। समाज ख़ुदा को भूल जाता है यानि ख़ुदा के हुक्म को भूल जाता है। राजनीति को दीन से अलग एक गंदी चीज़ समझ लिया जाता है और दुनिया छोड़कर ध्यान और ज़िक्र को ही अल्लाह की रज़ा पाने का ज़रिया समझ लिया जाता है। तब दीन-धर्म का लोप हो जाता है। रिब्बी, पंडित, पादरी और मौलवी लोगों को दीन-धर्म के बजाय मत-मज़हब की तालीम देते हैं और समाज में बहुत से संप्रदाय खड़े कर देते हैं। लोग अपनी मुक्ति के लिए उनकी बात मानना ज़रूरी समझते हैं। ये मौलवी अपने संप्रदाय को मुक्ति (नजात) का ठेकेदार और दूसरे संप्रदायों को जहन्नम का मुस्तहिक़ मानते है। इससे नफ़रत और झगड़े पैदा होते हैं। एक इंसान दूसरे का ख़ून बहाता है और यह सब वह अल्लाह के नाम पर और दीन की ख़ातिर करता है। जो मुसलमान आलिम इस तरह के काम कराते हैं वे इग़वा ए शैतानी (शैतान द्वारा मानसिक अपहरण) के शिकार होते हैं या फिर ख़ुद ही शैतान बन चुके होते हैं।
दीन की सही जानकारी के आम होने से उन लोगों को बेचैनी हो रही है जो ख़ुद को आलिम कहते हैं और बिना कुछ किए पब्लिक के माल पर ऐश उड़ाते हैं। कोई मस्जिद बनाने के नाम पर और कोई मदरसा चलाने के नाम पर चंदा इकठ्ठा करता है और उसका 40 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत ख़ुद डकार जाता है। कोई ख़ुद को क़ाज़ी कहता है और निकाह पढ़ाने के एवज़ 1 हज़ार रूपये से लेकर 5 हज़ार तक बल्कि ज़्यादा भी ले लेता है। इन्हीं लोगों में वे लोग भी हैं जो मियां बीवी के झगड़े का फ़ायदा उठाते हैं। कोई आदमी ग़ुस्से में आकर अपनी बीवी को तलाक़ दे देता है तो ये आलिम उससे ‘हलाला‘ करने के लिए कहते हैं और उसकी बीवी से निकाह कर लेते हैं। एक मौलवी ने तो बाक़ायदा का हलाला के लिए पूरा सेंटर ही क़ायम कर लिया है। हलाला का यह तरीक़ा इसलामी शरीअत में ही नहीं है कि मुददत मुक़र्रर करके तलाक़ देने वाला शौहर अपनी बीवी का निकाह किसी से करवाए और फिर उससे तलाक़ दिलवाए। तलाक़ का सही तरीक़ा क्या है , क़ुरआन की सूरा ए तलाक़ में इसकी पूरी जानकारी दी गई है। 
हरेक गुमराही और पाखंड की जड़ काटने के लिए क़ुरआन काफ़ी है। सैयद अब्दुल्लाह तारिक़ साहब ने क़ुरआन का इल्म आम किया। उन्होंने बिना कोई रक़म लिए निकाह करवाने शुरू किए। उन्होंने बताया कि ग़ुस्से में आकर 3 तलाक़ एक साथ देने से बीवी पराई नहीं हुई। वह उसकी तरफ़ रूजू कर सकता है। उसे किसी से हलाला कराने और तलाक़ दिलवाने की ज़रूरत सिरे से ही नहीं है। यह सब क़ुरआन और शरीअत के साथ खिलवाड़ करना है।
उनके इन कामों से रामपुर के मज़हबी ठेकेदारों को अपनी दुकानों पर ताले पड़ते नज़र आए। उन्होंने सैयद अब्दुल्लाह तारिक़ साहब पर उस जुर्म का इल्ज़ाम धर दिया जो कि उन्होंने कभी किया ही नहीं कि वह क़ुरआन को महफ़ूज नहीं मानते।
क़ाज़ी ए शरअ व मुफ़्ती ए ज़िला रामपुर सैयद शाहिद अली हसनी नूरी जमाली, शेख़ुल हदीस जामियातुल इस्लामिया पुराना गंज, रामपुर ने सैयद अब्दुल्लाह तारिक़ साहब पर कुफ़्र का फ़तवा लगा दिया 
इतने लंबे अल्क़ाब वाला यह शख्स कौन है ?
ये वह साहब हैं जिनके एक शागिर्द ने अपनी बीवी को ग़ुस्से में आकर 3 तलाक़ दे दी और मदद के लिए इनके पास आया तो इन्होंने उससे कहा कि तुम हलाला कराओ, मुझसे करवा लो तो मैं तुम्हारी बीवी को तलाक़ दे दूंगा। इस तरह तुम अपनी बीवी से फिर से निकाह कर लेना। उनके शागिर्द ने अपना उस्ताद मानकर अपनी बीवी इन्हें दे दी। इन्होंने उससे निकाह कर लिया और फिर उसे तलाक़ नहीं दी। वह शागिर्द रो रो कर लोगों को अपनी दास्तान सुनाता रहा। इस तरह के काम दीन के नाम पर करने वाले यह साहब रामपुर ज़िले के मुफ़्ती बने हुए हैं और लोगों के पीर भी बने हुए हैं। यही लोग हैं जो दीन को बदनाम करते हैं।
इस प्रोग्राम में शरीक होने वाले मुक़र्रिर हज़रात के नाम ये हैं-
1. मौलाना मुफ़्ती मुहम्मद अय्यूब ख़ां साहब शेख़ुल हदीस, जामिया नईमिया, मुरादाबाद
2. हाफ़िज़ ए अहादीस हज़रत मौलाना सग़ीर अहमद रिज़वी नाज़िमे आला जामिया क़ादिरिया, रिछा, बरेली
3. मुफ़्ती मुहम्मद शमशाद अहमद साहब रिज़वी, मुफ़्ती ए शहर बदायूं
4. डा. मुहम्मद हसीन साहब बरेलवी, चेयरमैन अरेबिक एंड पर्शियन डिपार्टमेंट, बरेली कॉलिज, बरेली
5. मौलाना शहाबुददीन रिज़वी ख़तीब अहले सुन्नत, जनरल सेक्रेटरी  जमाते रज़ा ए मुस्तफ़ा, बरेली शरीफ़
6. डा. हफ़ीज़ुर्रहमान जेएनयू, दिल्ली
रामपुर के उर्दू अख़बार ‘नाज़िम‘ के मुताबिक़ इस प्रोग्राम का आयोजन अंजुमन ग़ुलामाने रसूल तकिया मैमरान रामपुर ने किया है।
आज रॉयल मैरिज हॉल, ईदगाह रोड, रामपुर में मुफ़्ती साहब ने कई शहरों के अपने जैसे ‘आलिम‘ इकठ्ठा कर रखे हैं। जलसे में ज़्यादातर उनके मदरसे के तालिब इल्म हैं जबकि शहर की जनता न के बराबर है। यह इस बात की अलामत है कि मुसलमान जनता जागरूक हो रही है।
यह जलसा आज दिनांक 5 दिसंबर 2012 को सुबह 9 बजे से दोपहर 2 बजे तक चला। इसके बाद प्रेस कॉन्फ्रेंस हुई। 
इस सिलसिले में मीडिया ने भी अपनी ज़िम्मेदारी अच्छी तरह अदा की हैं। उसने सैयद अब्दुल्लाह तारिक़ साहब का बयान भी छापा है जिसमें उन्होंने शहर की अवाम से अपील की है कि वे किसी के भड़काए में न आएं और संयम से काम लें। 
मीडिया के इस अमल पर मुफ़्ती शाहिद साहब ने अपनी तक़रीर में व्यंग्य भी किया है। इसमें अल्लामा सैयद अब्दुल्लाह तारिक़ साहब की तक़रीर ‘दीन और मज़हब‘ की सीडी का एक हिस्सा दिखाकर अवाम को भड़काना चाहा लेकिन न तो कोई भड़का और न ही कोई हंगामा बरपा हुआ जो कि मुमकिन था। अल्लाह का शुक्र है कि यह जलसा सकुशल संपन्न हुआ।
इन तंगनज़र आलिमों और नक़ली पीरों की हालत को देखकर अल्लामा इक़बाल का शेर याद आ रहा है-
मीरास में आई है इन्हें मसनदे इरशाद
ज़ाग़ों के तसर्रूफ़ में हैं उक़ाबों के नशेमन

ज़ाग़ का अर्थ - कौआ

Tuesday, November 27, 2012

दीन के दाई का मुक़ददर है झूठे इल्ज़ाम और मुख़ालिफ़तें, अल्लाह सलामत रखे दीन के तमाम दाईयों को नेक तौफ़ीक़ दे नादान दोस्तों को, आमीन !


मानव जाति का इतिहास राजाओं और बादशाहों का इतिहास है। जब हम यह इतिहास पढ़ते हैं तो इसमें कहीं कहीं किसी सच्चे इंसान की दास्तान भी पढ़ने के लिए मिल जाती है। इन्हीं सच्चे लोगों में से एक हैं हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम। आज दुनिया उनके नाम को जानती है। उनके नाम को जानने के बावजूद लोग उनके काम को ठीक से नहीं जानते। वे लोग भी उनके काम को ठीक से नहीं जानते, जो कि उनका अनुयायी होने का दावा करते हैं। ख़ुद उनके सामने भी उनके शिष्य बहुत बार उनकी बात की मंशा को नहीं समझ पाते थे क्योंकि अक्सर वे अपनी बात मिसाल और दृष्टांत के ज़रिये कहते थे। ऐसा वे इसलिए करते थे कि जो लोग यहूदियों के धर्माधिकारी बने हुए थे वे पहले भी पैग़म्बरों को क़त्ल कर चुके थे और अब वे हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम को भी क़त्ल करने की फ़िराक़ में थे। ये लोग इंसानों में से शैतान होते हैं। शैतान का काम लोगों को बहकाना है और पैग़म्बरों का काम उन्हें सीधा रास्ता दिखाना होता है। पैग़म्बरों आते हैं और वे अल्लाह का कलाम, ईश्वर की वाणी लोगों को सुनाते हैं। लोग उन्हें सुनते हैं तो शैतान बेचैन हो जाता है। वह जानता है कि जब तक इंसान अल्लाह के कलाम से, ईश्वर की वाणी से जुड़ा रहेगा, तब तक वह उसे हरगिज़ गुमराह नहीं कर सकता। इसलिए वह कोशिश करता है कि इंसान के दिल में अल्लाह का कलाम न रहे। इस हक़ीक़त को हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम ने अपने अल्फ़ाज़ में बयान किया है तो उनके साथी उनकी मंशा को समझ ही नहीं पाए।
देखिए बाइबिल-

दृष्टान्त-कथाओं का प्रयोजन

10 फिर यीशु के शिष्यों ने उसके पास जाकर उससे पूछा, “तू उनसे बातें करते हुए दृष्टान्त कथाओं का प्रयोग क्यों करता है?”
11 उत्तर में उसने उनसे कहा, “स्वर्ग के राज्य के भेदों को जानने का अधिकार सिर्फ तुम्हें दिया गया है, उन्हें नहीं।12 क्योंकि जिसके पास थोड़ा बहुत है, उसे और भी दिया जायेगा और उसके पास बहुत अधिक हो जायेगा। किन्तु जिसके पास कुछ भी नहीं है, उससे जितना सा उसके पास है, वह भी छीन लिया जायेगा। 13 इसलिये मैं उनसे दृष्टान्त कथाओं का प्रयोग करते हुए बात करता हूँ। क्योंकि यद्यपि वे देखते हैं, पर वास्तव में उन्हें कुछ दिखाई नहीं देता, वे यद्यपि सुनते हैं पर वास्तव में न वे सुनते हैं, न समझते हैं। 14 इस प्रकार उन पर यशायाह की यह भविष्यवाणी खरी उतरती है:
‘तुम सुनोगे और सुनते ही रहोगे
    पर तुम्हारी समझ में कुछ भी न आयेगा,
तुम बस देखते ही रहोगे
    पर तुम्हें कुछ भी न सूझ पायेगा।
15 
क्योंकि इनके हृदय जड़ता से भर गये।
    इन्होंने अपने कान बन्द कर रखे हैं
    और अपनी आखें मूँद रखी हैं
ताकि वे अपनी आँखों से कुछ भी न देखें
    और वे कान से कुछ न सुन पायें या
    कि अपने हृदय से कभी न समझें
और कभी मेरी ओर मुड़कर आयें और जिससे मैं उनका उद्धार करुँ।’
16 किन्तु तुम्हारी आँखें और तुम्हारे कान भाग्यवान् हैं क्योंकि वे देख और सुन सकते हैं। 17 मैं तुमसे सत्य कहता हूँ, बहुत से भविष्यवक्ता और धर्मात्मा जिन बातों को देखना चाहते थे, उन्हें तुम देख रहे हो। वे उन्हें नहीं देख सके। और जिन बातों को वे सुनना चाहते थे, उन्हें तुम सुन रहे हो। वे उन्हें नहीं सुन सके।

बीज बोने की दृष्टान्त-कथा का अर्थ

18 “तो बीज बोने वाले की दृष्टान्त-कथा का अर्थ सुनो:
19 “वह बीज जो राह के किनारे गिर पड़ा था, उसका अर्थ है कि जब कोई स्वर्ग के राज्य का सुसंदेश सुनता है और उसे समझता नहीं है तो दुष्ट आकर, उसके मन में जो उगा था, उसे उखाड़ ले जाता है।
20 “वे बीज जो चट्टानी धरती पर गिरे थे, उनका अर्थ है वह व्यक्ति जो सुसंदेश सुनता है, उसे आनन्द के साथ तत्काल ग्रहण भी करता है। 21 किन्तु अपने भीतर उसकी जड़ें नहीं जमने देता, वह थोड़ी ही देर ठहर पाता है, जब सुसंदेश के कारण उस पर कष्ट और यातनाएँ आती हैं तो वह जल्दी ही डगमगा जाता है।
22 “काँटों में गिरे बीज का अर्थ है, वह व्यक्ति जो सुसंदेश को सुनता तो है, पर संसार की चिंताएँ और धन का लोभ सुसंदेश को दबा देता है और वह व्यक्ति सफल नहीं हो पाता।
23 “अच्छी धरती पर गिरे बीज से अर्थ है, वह व्यक्ति जो सुसंदेश को सुनता है और समझता है। वह सफल होता है। वह सफलता बोये बीज से तीस गुना, साठ गुना या सौ गुना तक होती है।”
-मत्ती 13:10-23

यहूदियों में सीधे-सादे और नेकदिल लोग भी थे जो कि ईसा को अल्लाह का नबी और अपना मसीहा मानते थे और उनमें वे धर्माधिकारी भी थे जो अपने थोड़े से लालच के लिए लोगों को गुमराह करते थे। उन्होंने हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम को बदनाम किया, उन पर झूठे इल्ज़ाम लगाए, उन पर पथराव किया और आखि़रकार उन पर ‘कुफ़्र का फ़तवा‘ लगाया और गवर्नर से कहा कि वह उन्हें सलीब पर लटका कर मार डाले।
अल्लाह का नबी, जो कि अल्लाह कि तरफ़ से आता है और लोगों को ईमान सिखाता है, उस पर भी उसके बारे में लोगों को बदगुमान किया जा सकता है, उस पर भी वक्त के उलमा कुफ़्र का फ़तवा लगा सकते हैं। यह एक हैरान कर देने वाली घटना है लेकिन ऐसा वाक़ई हुआ। 
इससे भी ज़्यादा बड़ा ज़ुल्म यह किया गया कि अल्लाह की ज़मीन से अल्लाह के कलाम को ही ग़ायब कर दिया जाता था। यहूदी आलिम अपनी किताब मूल तौरात खो चुके थे और ईसा मसीह अ. के ज़रिये जो इंजील आई, उन्होंने उसे कहीं न तो लिखा और न ही लिखने दिया। ईसा मसीह अ. के सैकड़ों साल बाद लोगों ने अपनी याददाश्त से जो कुछ लिखा तो उसमें अल्लाह के कलाम के साथ ईसा मसीह का कलाम और ईसाई प्रचारकों के विचार भी मिल गए। इस तरह असल हक़ीक़त फिर दब गई। 
हज़रत ईसा अ. यह बताया करते थे कि ‘ईश्वर एक है, वह पिता से बढ़कर तुम सबसे प्रेम करता है। तुम भी अपने सारे मन, प्राण और आत्मा से उससे प्रेम करो। उसकी दी हुई व्यवस्था का पालन करो। मैं उसकी व्यवस्था को मिटाने नहीं वरन् उसे पूरा करने के लिए आया हूं। मैं अपने भेजने वाले से बड़ा नहीं हूं। मैं उसी की इबादत करता हूं और उसी से प्रार्थना करता हूं। तुम भी उसी की इबादत करो और उसी से प्रार्थना करो। तुम तब तक स्वर्ग के राज्य में प्रवेश नहीं कर सकते जब तक कि तुम बच्चों जैसे न हो जाओ।‘ 
उनके कलाम में यह सब लिखा हुआ मिलता है लेकिन बाद में ईसाईयों में भी लालची लोग धर्म की गददी पर बैठ गए और अपनी तरफ़ से ही बेबुनियाद बातों को धर्म बना दिया, जैसे कि ईसा मसीह ईश्वर के इकलौते पुत्र थे। हम सब जन्म से ही पापी हैं। इसीलिए मर्द को कमाने के लिए पसीना बहाना पड़ता है और औरत को बच्चा पैदा करने में दर्द होता है। हमारे पाप क्षमा करने के लिए ईश्वर ने अपने इकलौते पुत्र को सलीब पर लटका कर मार दिया। हमारे पाप क्षमा हो गए हैं। हमें ईश्वर की व्यवस्था का पालन करने की ज़रूरत नहीं है। ईश्वर ने अपना सब कुछ ईसा मसीह को दे दिया है। अब हमें ईसा के सामने ही सज्दा करना चाहिए और उसी से प्रार्थना करनी चाहिए।
यहूदी आलिमों ने कहा कि ईसा अलैहिस्सलाम ईश्वर की निंदा यानि कुफ़्र करते हैं और ईसाई आलिमों ने कहा कि ईसा मसीह ने हमारे पापों के बदले अपनी जान देकर हमें व्यवस्था से मुक्त कर दिया है।
उनके बारे में दोनों ने ही झूठ कहा और यक़ीनन उनके बारे में जो भी झूठ गढ़ता है, असल में वही कुफ़्र (ईशनिंदा) करता है।
हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम के बाद अल्लाह ने हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को अपना नबी व रसूल बनाया। उन्होंने भी लोगों को वही पैग़ाम सुनाया जो कि उनसे पहले हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम और हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम सुना चुके थे। नतीजा यह हुआ कि जो लोग पहले मूसा अ. और ईसा अ. के साथ दुश्मनी कर चुके थे। वे पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के भी जानी दुश्मन हो गए। 
वे कौन थे ?
ये वे लोग थे जो उस वक्त लोगों को राह दिखाने के उन्हें गुमराह कर रहे थे। ये लोग धर्म और राजनीति की गददी पर बैठे हुए थे। इन्होंने पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को क़त्ल करने की कई बार कोशिश की लेकिन अल्लाह ने हर बार उन्हें बचाया यहां तक कि पूरा क़ुरआन नाज़िल हो गया और पूरी सुरक्षा के साथ उसे लिख लिया गया। सैकड़ों लोगों ने पूरा क़ुरआन हिफ़्ज़ (कंठस्थ) कर लिया और इस तरह क़ुरआन लोगों के दिलों पर नक्श हो गया। पांच वक्त नमाज़ में क़ुरआन पढ़ा जाता। जिसे ख़ास व आम सभी लोग सुनते और याद करते। इस तरह क़ुरआन फैलता रहा और बिना किसी कमी बेशी के एक नस्ल से दूसरी नस्ल तक पहुंचता रहा। फिर मशीनी छपाई का दौर आया और कंप्यूटर और इंटरनेट का दौर आ चुका है। इस तरह क़ुरआन एक ऐसे दौर में दाखि़ल हो चुका है, जहां क़ुरआन में किसी तरह की कोई कमी बेशी नहीं की जा सकती। यह एक अटल हक़ीक़त है।
इसी के साथ यह भी एक सच्चाई है कि ऐसे लोग आज भी मौजूद हैं जो कि क़ुरआन के फैलाव को रोकना चाहते हैं। 
क़ुरआन मजीद को जलाने की निंदनीय हरकत का मक़सद यही था।
इन्हीं लोगों ने क़ुरआन में शक पैदा करने के लिए ‘अलफ़ुरक़ानुल हक़‘ के नाम से कुछ तैयार किया और दावा किया कि हमने क़ुरआन के मिस्ल एक किताब तैयार कर ली है। क़ुरआन के आलिमों ने जब इसे देखा तो यह एक साज़िश निकली और इसके पीछे भी वही लोग निकले जो हमेशा से नबियों को क़त्ल करते आए हैं और अल्लाह के कलाम को ग़ायब करते आए हैं। वे अल्लाह के कलाम, क़ुरआन को अब ग़ायब तो नहीं कर पाएंगे लेकिन उसके बारे में अफ़वाह फैलाने से और उसके बारे में शक पैदा करने से बाज़ नहीं आएंगे।
ताशक़ंद में एक नुस्ख़े को क़ुरआने करीम का उस्मानी नुस्ख़ा कहा जाता है। इससे छेड़छाड़ करना भी इसी सिलसिले की एक कड़ी है। दूसरी जगहों पर भी इन्होंने कुछ कर रखा होगा।
यह फ़ित्नों का दौर है। इस दौर में हरेक ईमान वाले को होशियार और ख़बरदार रहना ज़रूरी है। 
अल्लामा सैयद अब्दुल्लाह तारिक़ साहब का अहसान है कि दुश्मने हक़ इस साज़िश से मुसलमानों को कोई नुक्सान पहुंचा पाते। उससे पहले ही उन्होंने इस साज़िश को बेनक़ाब करके मुसलमानों को आगाह कर दिया।
क़ुरआने करीम के साथ कोई भी छेड़छाड़ ईमान वालों को दुखी करती है। इससे मुसलमानों के जज़्बात भड़कते हैं और दुश्मन यही चाहते हैं कि मुसलमान दुखी हो और जज़्बात से बेक़ाबू हो कर भड़के ताकि इस्लाम और मुसलमानों को बदनाम किया जा सके।
मुसलमान अगर सब्र रखे और हिकमत व दानिशमंदी से दुश्मन की चाल को समझे तो वह उनकी साज़िश को नाकाम भी बना सकता है और दुनिया भर में क़ुरआन के पैग़ाम को आम भी कर सकता है।
क़ुरआन पूरी तरह सुरक्षित है। अपनी सुरक्षा के सुबूत के तौर पर यह ख़ुद काफ़ी है। पूरी दुनिया में फैली हुई करोड़ों प्रतियां इसका सुबूत हैं। लाखों हाफ़िज़ इसकी हिफ़ाज़त के गवाह हैं। इन सब प्रतियों में और इन सब हाफ़िजों के दिलों में एक ही क़ुरआन मौजूद है।
सैयद अब्दुल्लाह तारिक़ साहब की पिछली 25 साल की मेहनत हमारे सामने मौजूद है। उसमें उन्होंने क़ुरआन की हिफ़ाज़त को उन पहलुओं से भी दुनिया के सामने उजागर किया है, जो कि दुनिया से पोशीदा थे या जिन्हें बहुत कम लोग जानते थे।
किसी आदमी के कलाम को समझने में दुश्वारी पेश आए तो उससे हक़ीक़त दरयाफ़्त कर ली जाए या फिर उसकी ज़िंदगी भर की मेहनत को, उसकी दूसरी किताबों और तक़रीरों को भी सामने रखा जाना चाहिए।
पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहब स. के बाद अब कोई नया नबी नहीं आएगा। दुनिया की 7 अरब की आबादी में 153 करोड़ मुसलमान हैं। बाक़ी साढ़े पांच अरब ग़ैर मुस्लिमों तक अल्लाह के पैग़ाम को पहुंचाना मुसलमानों की ज़िम्मेदारी है। इस ज़िम्मेदारी से मुसलमानों में आम ग़फ़लत है यहां तक कि जो लोग आलिम कहलाते हैं, उनमें भी कोई कोई ही इस अज़ीम फ़र्ज़ को अंजाम दे रहा है। 
दीन की दावत के बजाय लोगों के ज़हन में मसलक और फ़िरक़ापरस्ती हावी हो गई है। इससे ग़ुलू और तशददुद (कटटरता और हिंसा) को फ़रोग़ मिलता है। एक मसलक दूसरे मसलक से भिड़ना सवाब का काम समझता है। जो लोग ज़िंदगी में किसी एक को भी काफ़िर से मोमिन नहीं बनाते। वे लाखों करोड़ों लोगों को आसानी से काफ़िर क़रार देते हैं।
जिसे काफ़िर क़रार दें तो उसकी इस्लाह की कोशिश भी तो करें।
पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहब सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम एक एक अधर्मी नास्तिक (काफ़िर) के पास सत्तर सत्तर बार जाकर उसकी इस्लाह की कोशिश करते थे। 
लोगों पर कुफ़्र का फ़तवा जारी करने वाले उनमें से किसी के पास सात बार भी नहीं जाते बल्कि एक बार जाना भी ज़रूरी नहीं समझते।
ये लोग नबी स. की सुन्नत से कटकर जी रहे हैं और समझते हैं कि हम दीनदार हैं।
हक़ीक़त में दीन आज अजनबी हो चुका है।
पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लन इरशाद फ़रमाया है-
‘बदाअल इस्लामु ग़रीबा सयऊदो कमा बदा‘
यानि इस्लाम अजनबियत से शुरू हुआ और अन्क़रीब अजनबियत की तरफ़ ही लौट जाएगा।‘

दीने इस्लाम की दावत देने वाले शख्स पर ही जब कुफ़्र का फ़तवा सादिर कर दिया जाए तो इस हदीसे पाक की हक्क़ानियत हमारे सामने रोज़े रौशन की तरह अयां हो जाती है।
हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम जैसे जलीलुल क़द्र पैग़म्बर पर उलमा ए वक्त कुफ़्र का फ़तवा लगा चुके हैं तो उम्मते मुहम्मदिया के आम दाई पर इस तरह का फ़तवा सादिर कर देना कुछ अजब नहीं है। इस तरह के कामों के पीछे कई वजहों में से एक मसलकी तआस्सुब और हसद होता है। हसद ऐसी चीज़ है जिसकी वजह से हज़रत यूसुफ़ को उनके भाईयों ने ही कुएं में फेंक दिया था। जिन लोगों की तरबियत ख़ुद अल्लाह के नबी फ़रमा रहे हों, जब वे हसद के शिकार हो कर ख़ता कर सकते हैं तो फिर आज के दौर में इस तरह की दुश्मनियों के इम्कान मज़ीद बढ़ जाते हैं जबकि यह दौर ही नफ़्सपरस्ती का है।
दावते दीन की राह में इस तरह की रूकावटों का एक लम्बा इतिहास है। इसके बावजूद अल्लाह का दीन ज़मीन पर हमेशा से है और हमेशा रहेगा। किसी और की ज़िंदगी में दीन रहे या न रहे लेकिन दीन के दाई की ज़िंदगी में दीन हमेशा रहेगा। यही वे लोग हैं जिनसे दीन उस वक्त भी सीखा जा सकता है जबकि दीन अजनबी हो चुका हो।
अल्लाह सलामत रखे दीन के तमाम दाईयों को नेक तौफ़ीक़ दे नादान दोस्तों को,
आमीन !

Monday, November 26, 2012

S. Abdullah Tariq, अल्लामा सय्यद अब्दुल्लाह तारिक़ साहब एक मुख़लिस मोमिन और दीन के दावती काम को अंजाम देने वाले साहिबे इरफ़ान शख्स हैं




अल्लामा सय्यद अब्दुल्लाह तारिक़ साहब एक मुख़लिस मोमिन और दीन के दावती काम को अंजाम देने वाले साहिबे इरफ़ान शख्स हैं। उनकी मुलाक़ात के बाद बहुत से लोगों के दिल से बातिल का अंधेरा दूर हुआ और ईमान की रौशनी उन्हें नसीब हुई। ऐसे कितने ही लोगों को हमने ख़ुद अपनी आंखों से देखा है। जिन लोगों को क़ुरआन में और अल्लाह के वुजूद में शक था, उनका शक दूर हुआ और उन्हें यक़ीन हासिल हुआ।
90 के दशक में दिवाकर राही एडवोकेट ने क़ुरआन पर ऐतराज़ जताए तो उन तमाम ऐतराज़ात का जवाब उनमें से किसी ने आज तक नहीं दिया, जो फ़तवे सादिर करते हैं, उन ऐतराज़ात का जवाब अल्लाम सय्यद अब्दुल्लाह तारिक़ साहब ने फ़ौरन दिया और वह ‘गवाही‘ के नाम से छपी हुई शक्ल में भी दस्तयाब है। पूरा रामपुर और सारा दावती हल्क़ा उनके इस काम का गवाह है। इन तमाम कामों को नज़रअंदाज़ करके तारिक़ साहब के बारे में झूठ वहीं शख्स बोल सकता है, जिसकी अक्ल मारी गई हो या जो आखि़रत की पकड़ से बेख़ौफ़ हो।
ईमान वाला कोई शख्स झूठा इल्ज़ाम हरगिज़ नहीं लगा सकता। अफ़सोस की बात यह है कि ये लोग ख़ुद को दीन का ज़िम्मेदार बना कर पेश करते हैं।

Sunday, August 26, 2012

The People of Jannah (Paradise)


“You will recognize in their faces the beaming brightness of bliss.”
[Translation of the Holy Quran, Surrah Al-Mutaffifeen, 83: 24]
“Some faces, that day, will beam (in happiness), looking at their Lord!”
[Translation of the Holy Quran, Surrah, Qiyamah, 75: 22-23]

“The righteous will be amid gardens and springs. (They will be greeted), ‘Enter here in peace and security.’ And We shall remove from their hearts any lurking sense of injury. (They will be) brothers facing each other on thrones. There no sense of fatigue shall touch them, nor shall they (ever) be evicted.”
[Translation of the Holy Quran, Surrah, Hijr, 15: 45-48]

“Faces that day will be joyful – pleased with their striving – in a garden on high, where they shall hear no bad speech.”
[Translation of the Holy Quran, Surrah, Ghashiyah, 88: 8-11]

Abu Hurairah [ra] reported that the Prophet [saw] said:
“Allah, the Exalted and Glorious, created Adam in His own image with his length being sixty cubits. As He created him, He told him to greet that group (a party of angels sitting there) and listen to the response that they gave him, for it would form his greeting and that of his offspring. He then went away and said, ‘Peace be upon you!’ They (the angels) said, “May there be peace upon you and the mercy of Allah.” So all those who enter Jannah will be in the form of Adam, his length being sixty cubits. Then the people who followed him continued to diminish in size up to now.”
[Sahih Muslim]

Abu Hurairah [ra] reported that the Messenger [saw] said:
“There will enter Jannah people whose hearts will be like those of the hearts of the birds.”
[Sahih Muslim] 


(This hadith beautifully sums up the qualities of the people of Jannah, just as the hearts of birds are free from every tint of jealousy, in the same way the hearts of the people of Jannah will e free from jealousy, rancor, deceit, and hatred. Secondly, just as birds are always alert and cautious of any danger, in the same way the hearts of the people of Jannah will also be wakeful. Thirdly, trust as the birds trust in Allah for their food, in the same way the people of Jannah will have complete trust in Allah regarding their sustenance, rather, their very existence.)
[Commentary of Abdul Hamid Siddiqi]

Sahl bin Sa’d [ra] narrated that the Prophet [saw] said:
“Seventy thousand or seven hundred thousand of my followers (the narrator is in doubt as to the correct number) will enter Jannah holding each other till the first and the last of them enter Jannah at the same time. Their faces will have a glitter like that of the moon at night when it is full.”
[Sahih al-Bukhari]

Sahl bin Sa’d [ra] reported that the Prophet [saw] said:
“Verily, 70,000 or 700,000 of my followers will enter Jannah altogether so that the first and the last of them will enter at the same time. Their faces will be a glittering like the bright full moon.”
[Sahih al-Bukhari]

Abu Hurairah [ra] narrated that the Prophet [saw] said:
“The first batch (of people) who will enter Jannah will be (glittering like the full moon, and the batch next to them will be (glittering) like the most brilliant star in the sky. Their hearts will be as the heart of a single man, for they will have neither enmity nor jealousy among themselves. Everyone will have two wives from the hooris (who will be so beautiful, pure and transparent that) the marrow of the bones of their legs will be seen through the bones and the flesh.”
[Sahih al-Bukhari]


Abu Hurairah [ra] reported that Allah’s Messenger [saw] said:
“The first group (of people) who will enter Jannah will be glittering like the moon when it is full. They will not spit or blow their noses or relieve nature. Their utensils will be of gold and their cups of gold and silver. In their censors, the aloe wood will be used, and their sweat will smell like musk. Everyone of them will have no enmity among themselves. Everyone of them shall have two wives. The marrow of the bones of the wives ‘legs will be seen through the flesh because of excessive beauty. They (the people of Jannah) will be neither have differences nor hatred among themselves. HTier hearts will be as one heart, and they will be glorifying Allah in the morning and in the evening.”
[Sahih al-Bukhari]

Abu Hurairah [ra] narrated that the Prophet [saw] said:
“The first batch (of people) who will enter Jannah will be (glittering) like a full moon, and those who will enter next will be glittering like the brightest star. Their hearts will be like the heart of a single man, for they will have two wives, each of whom will be so beautiful, pure and transparent that the marrow of the bones of their legs will be see through the flesh, they will be glorifying Allah in the morning and evening. They will never fall ill, blow their noses or spit. Their utensils will be of gold and silver and their cups will be of gold. The matte used in their censors will be the aloe wood, and their sweat will smell like musk.”
[Sahih al-Bukhari]


Abu Sa’eed Al-Khudri [ra] reported that the Prophet [saw] said:
“Jannah and Hellfire disputed together and Hellfire said, ‘In me are the mighty and haughty.’ Jannah said, ‘In me are the weak and the poor.’ So Allah judged between them (saying), ‘You are Jannah, My mercy. Through you and I show mercy to those I wish. And you are Hellfire, My punishment. Through you I punish those I wish, and it is incumbent upon Me that each of you shall have its full.’”
[Sahih al-Bukhari, Muslim and at-Tirmidhi]

Harithah ibin Wahb [ra] narrated that the Messenger of Allah [saw] said:
“May I tell you who the dwellers of Jannah are? (They are) every person who is considered weak and is despised, and who if he takes an oath of reliance upon Allah, will fulfill it. Now may I tell you who the people destined for Hell are? (they are) everyone who is ignorant, impertinent, proud and arrogant.”
[Sahih al-Bukhari and Muslim]

Tuesday, August 14, 2012

मुस्लिम होना चाहें तो क्या करें ? Become a Muslim

How to Convert to Islam and Become a Muslim ?

To convert to Islam and become a Muslim a person needs to pronounce the below testimony with conviction and understanding its meaning:
I testify “La ilah illa Allah, Muhammad rasoolu Allah.”
The translation of which is:
“I testify that there is no true god (deity) but God (Allah), and that Muhammad is a Messenger (Prophet) of God.”
To hear it click here or click on “Live Help” above for assistance by chat.

Monday, July 30, 2012

क़ुरआन व हदीस की रौशनी में ज़कात के मुस्तहिक़ लोग

कलिमा ए तय्यिबा के इक़रार के बाद ज़कात इसलाम का तीसरा स्तंभ है और इसकी अहमियत का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि क़ुरआन मजीद में नमाज़ क़ायम करने के हुक्म के साथ बार बार ज़कात अदा करने का हुक्म दिया गया है। ज़कात का मक़सद इसलामी समाज में मालदार लोगों से माल लेकर ग़रीब लोगों की आर्थिक रूप से मदद करना है ताकि ग़रीबी का ख़ात्मा हो। आज मुसलमानों में जो मुफ़लिसी और ग़रीबी हमारे समाज में मौजूद है वह इस बात का सुबूत है कि ज़कात की सही अदायगी नहीं हो रही है और वह असल हक़दारों तक पूरी तरह नहीं पहुंच रही है। आम तौर से लोग इस बात से नावाक़िफ़ हैं कि ज़कात लेने के हक़दार कौन कौन लोग हैं और ज़कात किन लोगों पर फ़र्ज़ है ?हर वह शख्स जिसके पास साढ़े सात तोला सोना या 52 तोला चांदी या इस निसाब के मूल्य जितने माल पर साल गुज़र जाए तो उसे उस का चालीसवां हिस्सा यानि ढाई प्रतिशत ज़कात अदा करनी फ़र्ज़ है। क़ुरआन व हदीस में ज़कात को सदक़ा भी कहा गया है। सूरा ए तौबा की 9वीं आयत का तर्जुमा है-‘‘ज़कात जो हक़ है वह हक़ है फ़ुक़रा (मुफ़लिसों) का और मसाकीन (मुहताजों) का और आमिलीन (ज़कात के काम में जाने वालों) का और मौल्लिफ़तुल क़ुलूब (ऐसे ग़ैर मुस्लिम जिनकी दिलजोई की ज़रूरत हो) का और रिक़ाब (गर्दन छुड़ाने में) का आज़िमीन (क़र्ज़दार) का और सबीलिल्लाह (अल्लाह की राह में जानतोड़ संघर्ष करने वालों) का और इब्नुस्सबील (मुसाफ़िर जो सफ़र में ज़रूरतमंद हो)‘‘क़ुरआन पाक के इन अहकामात के बारे में हदीस शरीफ़ में स्पष्ट किया गया है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया कि अल्लाह तआला ने ज़कात की तक़सीम को किसी नबी या ग़ैर नबी की मर्ज़ी पर नहीं छोड़ा बल्कि अल्लाह ने ख़ुद उसके मसारिफ़ मुतय्यन कर दिए हैं जो 8 हैं। लिहाज़ा यह ज़रूरी है कि इस बात की तहक़ीक़ कर ली जाए कि जिन्हें हम ज़कात दे रहे हैं वे क़ुरआन व हदीस की रू से उसके मुस्तहिक़ हैं और हमारी ज़कात उपरोक्त 8 मदों मे ही अदा हो रही है।एक हदीस में है कि एक शख्स ने अल्लाह के रसूल से कुछ माल तलब किया तो हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया कि ‘‘मेरे पास सदक़ा का माल है, अगर तुम उसके मुस्तहिक़ हो तो दे सकता हूं वर्ना नहीं‘‘, यानि ज़कात देते वक्त हक़ीक़त जानना इस हदीस से साबित है। ‘फ़ुक़रा‘ वे लोग हैं जिनके पास ज़िन्दगी की ज़रूरतें पूरी करने का सामान नहीं है और खाने पीने से भी मुहताज हैं लेकिन असल फ़ुक़रा की शान सूरा ए बक़रा की 273वीं आयत में अल्लाह तआला ने यूं बयान फ़रमाई है-भावार्थ-‘‘वे फ़ुक़रा जो अल्लाह की राह में रोक दिए गए हैं, जो मुल्क में चल नहीं सकते, नादान लोग उनके सवाल न करने की वजह से उन्हें मालदार ख़याल करते हैं। आप उनके चेहरे देखकर उन्हें पहचान लेंगे क़ियाफ़ा से। वे लोगों से लिपट कर सवाल नहीं करते। तुम जो कुछ माल ख़र्च करो तो अल्लाह उसका जानने वाला है।‘‘ इसी तरह मिस्कीन की तारीफ़ हदीस शरीफ़ में यह है कि हुज़ून नबी ए करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया कि दरअसल मिस्कीन तो वह है कि जिसके पास इतना माल न हो जो उसे किफ़ायत कर जाए और कोई उसका हाल भी न जानता हो कि उसे ख़ैरात दे दे और न लोगों से ख़ुद सवाल करे।(सही बुख़ारी किताबुज़्जकात)दअसल ज़कात का मक़सद ही यह है कि ग़रीब और नादार लोगों और ज़रूरतमंदों की ज़रूरत पूरी की जाए और अपने आस पास के लोगों, रिश्तेदारों पड़ोसियों, यतीमों, विधवाओं, ग़रीब विद्यार्थियों, ज़रूरतमंद मुसाफ़िरों, क़र्ज़दारों की ख़बरगीरी की जाए और ज़कात के मुस्तहिक़ीन की तहक़ीक़ करके उन्हें ज़कात दी जाए।
लेखक - प्रोफ़ेसर बसीर अहमद, 
राष्ट्रीय सहारा उर्दू दिनांक 27 जुलाई 2012 पृष्ठ 10, लेख ‘ क़ुरआन व हदीस की रौशनी में ज़कात के मुस्तहिक़ीन ‘ का एक अंश

Thursday, July 26, 2012

माहे रमज़ान की फ़ज़ीलत


रमज़ान की फ़ज़ीलत व बरतरी के बारे में हज़रत शैख़ अब्दुल क़ादिर जीलानी रहमतुल्लाह अलैह फ़रमाते हैं कि ‘‘रमज़ान गुनाहों से पाक होने का महीना है, अहले वफ़ा का महीना है और उन का महीना जो अल्लाह का ज़िक्र करने वाले हैं। अगर यह महीना तेरे दिल की दुरूस्तगी न करेगा, गुनाहों से न बचाएगा, तो फिर कौन सी चीज़ उन चीज़ों से तुझे बचाएगी। इस महीने में तो मोमिनों के दिल मारिफ़त व ईमान के नूर से रौशन हो जाते हैं।
हज़रत मुजददिद अलिफ़ सानी रहमतुल्लाह अलैह फ़रमाते हैं कि अगर इस महीने में किसी आदमी को नेक आमाल की तौफ़ीक़ मिल जाए तो पूरे साल यह तौफ़ीक़ उस के शामिल ए हाल रहेगी और अगर यह महीना बेदिली, बेफ़िक्री, तरद्दुद व इन्तशार के साथ गुज़रेगा तो पूरा साल इसी हाल में गुज़रने का अंदेशा है क्योंकि इस महीने का एक एक लम्हा क़ीमती है।
अल्लामा इब्ने क़य्यिम रहमतुल्लाह अलैह ने रोज़े के बारे में फ़रमाया है कि ‘‘यह अहले तक़वा की लगाम, मुजाहिदीन की ढाल और अबरार मुक़र्रबीन की रियाज़त है।
इमाम ग़ज़ाली रहमतुल्लाह अलैह फ़रमाते हैं कि ‘‘रोज़े का मक़सद यह है कि आदमी अख़लाक़े इलाहिय्या में से एक अख़लाक़ को तो अपने अंदर पैदा कर ले जिसे समदियत कहते हैं। वो यह है कि इम्कानी हद तक फ़रिश्तों की तक़लीद करते हुए ख्वाहिशात से ख़ाली हो जाए। जब यह अपनी ख्वाहिशात पर ग़ालिब आ जाता है तो आला इल्लिय्यीन और फ़रिश्तों के आफ़ाक़ तक पहुंच जाता है।
हज़रत शाह वलीउल्लाह मुहद्दिस देहलवी फ़रमाते हैं कि रोज़ा भूख प्यास, मैथुन को छोड़ना, तर्के मुबाशिरत, ज़ुबान, दिल और जिस्म के दूसरे अंगों को क़ाबू करने का महीना है।
चुनांचे रमज़ान रहमतों के नुज़ूल, बरकात के ज़ुहूर, सआदतों के हुसूल और अल्लाह के फ़ज़्ल की तलाश व जुस्तजू का महीना है। इस महीने में रहमतें इस तरह नाज़िल होती हैं कि हम उन का अहाता भी नहीं कर सकते। 

लेखक - हमीदुल्लाह क़ासमी कबीर नगरी, राष्ट्रीय सहारा उर्दू दिनांक 26 जुलाई 2012 पृष्ठ 4, 
लेख ‘ईनाम व इकराम का महीना है‘ का एक अंश

Monday, July 9, 2012

इसलाम में आर्थिक व्यवस्था के मार्गदर्शक सिद्धांत Islamic Economics


लेखक : डा. सैयद ज़फ़र महमूद info@zakatindia.org
अनुवाद: डा. अनवर जमाल
पवित्र क़ुरआन में परमेश्वर ने सृष्टि रचना का मक़सद खोल कर बयान कर दिया है यानि यह कि दुुनिया इंसानों के इम्तेहान के लिए है ताकि यह जांचे कि इस दुनिया को इंसानों की बेहतरीन जगह बनाने में सकारात्मक तरीक़े से हिस्सा लेकर ‘कौन बेहतरीन अमल करने वाला है ?‘(सूरह हूद आयत 7) सूरह बक़रह की आयत 2 व 3 में परमेश्वर बताता है कि नेकी और सदाचार का मर्तबा सिर्फ़ इबादत से ही हासिल नहीं होता। वह इंसानों से अपेक्षा करता है कि वे नमाज़ क़ायम करें और उस रिज़्क़ में से जो रब ने उन्हें अता किया है, ज़रूरतमंदों पर ख़र्च करें। यह ख़र्च (इन्फ़ाक़) माल, भोजन, लिबास, जिस्मानी मदद और शिक्षा देना वग़ैरह सब पर मुश्तमिल हो सकता है। सूरह बक़रह आयत 195 में परमेश्वर ख़बरदार करता है कि मुनासिब तरीक़े से इन्फ़ाक़ (अल्लाह की ख़ातिर ख़र्च ) करने में कोताही अपनी सामाजिक तबाही का सबब बन सकती है। इसी सूरह की आयत 261 - 274 में परमेश्वर और अधिक स्पष्ट करता है कि उसके हुक्म के मुताबिक़ ख़र्च करने का नतीजा जन सामान्य के लिए रोज़गार के साधन पैदा करने की ख़ातिर माल व असबाब और प्रशिक्षण  उपलब्ध कराने के रूप में होना चाहिए।
परमेश्वर ने भौतिक साधनों में कुछ लोगों को कुछ लोगों पर श्रेष्ठता और बढ़त दी है और इसमें अपनी यह हिकमत बयान की है कि वह मालदारों पर यह ज़िम्मेदारी डालता है कि वे इस बात को यक़ीनी बनाएं कि ज़िन्दगी के असबाब व साधन तमाम इंसानों के दरम्यान उनके निजी आर्थिक स्तर और कमाने की सामर्थ्य की तमीज़ के बिना न्यायपूर्ण तरीक़े से तक़सीम हों। एम्पलॉयर और एम्पलॉई के दरम्यान ताल्लुक़ के संदर्भ में यह ज़िम्मेदारी और भी ज़्यादा नाज़ुक हो जाती है। यही बात लेन देन वाले दूसरे तमाम तरह के ताल्लुक़ात पर भी चरितार्थ होती है। हासिल करने वालों की ऐसी ही फ़ेहरिस्त में परमेश्वर ज़रूरतमंदों, यतीमों, ग़ुलामों (नए दौर में जिन के तहत घरेलू नौकर भी शामिल हैं) को भी शामिल करता है। दरअसल पूंजीपति आदमी महज़ परमेश्वर की देन का अस्थायी मुतवल्ली (न्यासी) है। (सूरह हदीद आयत 7) कभी कभी परमेश्वर इन आदेशों की अवहेलना करने के नकारात्मक परिणाम उस से अपनी देन वापस लेकर उसकी ज़िन्दगी में ही दिखा देते हैं। (सूरह अलक़लम आयत 7-33)
ज़रूरतमंदों की ज़रूरत पूरी करने से बचने को परमेश्वर ने दीन और आखि़रत (परलोक) पर यक़ीन न रखना क़रार दिया है। (सूरह माऊन आयत 1-7) ऐसे आदमी की इबादत रब के नज़्दीक क़ुबूल नहीं की जातीं। लिहाज़ा सामाजिक और आर्थिक हमवारी एक बड़ा मक़सद है। नमाज़, रोज़ा और हज्ज वग़ैरह इबादतें ख़ुद अपने आप में मक़सद महज़ नहीं हैं। ये सृष्टि रचना के महान उद्देश्य को पूरा करने के लिए इंसान को तैयार करने का ज़रिया हैं।
ऐसे तमाम लोगों के लिए जिन्हें परमेश्वर ने दूसरों के मुक़ाबले ज़्यादा दिया है, यह ज़रूरी है कि उनका माल व साधन जन सामान्य के सामाजिक व आर्थिक कल्याण हेतु ख़र्च होना चाहिए। अगर कोई दौलतमंद आदमी अपना माल सही तरह से काम में लाने में असमर्थ है तो यह समाज की ज़िम्मेदारी है कि वह उसके माल व असबाब के सही तौर पर काम में आने के लिए रचनात्मक योगदान दे। इस तरह जन सामान्य के हित को लाहासिल निजी मिल्कियत पर तरजीह दी गई है। (अन्-निसा 29) बेहतरीन सामाजिक व आर्थिक आचरण इसलाम की सामाजिक व्यवस्था का आधार है।
इसलाम में ज़कात और सदक़ा भलाई के काम हैं। ज़कात के लिए आदमी के माल का चालीसवां हिस्सा हिस्सा क़रार दिया गया है। जबकि सदक़े की राशि निर्धारित करने के लिए क़ुरआन व हदीस में रहनुमा उसूल मौजूद हैं। सूरह बक़रह की आयत 219 में साफ़ हुक्म है कि तुम्हारे पास जो भी तुम्हारी ज़रूरत से ज़्यादा है उसे तुम्हें परमेश्वर के मार्ग में ख़र्च कर देना है। इस हुक्म को ‘क़ुलिल अफ़ू‘ का नाम दिया गया है। पैग़म्बर मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने अपने सहाबा से, जिन में हज़रत अबू बक्र रज़ि. व हज़रत उमर रज़ि. भी शामिल थे, फ़रमाया कि जो कुछ अपने परिवार के लिए ज़रूरी हो उसे रोक लो और जो बचे उसे सदक़ा कर दो। सदक़ा वसूल करना और उसे जन सामान्य के हित में इस्तेमाल करना ‘ऊलिल अम्र‘ (ऐसे लोग जो आर्थिक, रूहानी, शैक्षिक, सामाजिक और दीगर ऐतबार से अधिकार रखते हों) की ज़िम्मेदारी है। (अत्-तौबा 103 व अन्निसा 59) ऐशो आराम में मगन रहने को नापसंद किया गया है। (सूरह अलअनआम आयत 141, अलआराफ़ 31, हूद 6, अलअम्बिया 13) यह चीज़ व्यक्ति को समाज और परमेश्वर से काट देती है और बौद्धिक व सामाजिक शक्तियों को कमज़ोर करती है। माल को बर्बाद करने को इसलाम में मना किया गया है। (सूरह बनी इसराईल 26-27)
कारोबारी क़र्ज़ों के विषय में ‘मुज़ारिबत‘ का भी एक सिस्टम है। जिसमें एक पक्ष माल लगाता है और दूसरा पक्ष मेहनत करता है। माल लगाने वाला नफ़ा और नुक्सान में बराबर का भागीदार होता है। मिसाल के तौर पर अगर दो आदमी कोई कम्पनी क़ायम करते हैं और हरेक सरमाया और मेहनत का आधा हिस्सा लगाता है तो नफ़ा की तक़सीम कुछ मुश्किल नहीं है लेकिन अगर एक पक्ष पूंजी लगाता है और मेहनत दूसरा करता है या माल तो दोनों लगाते हैं लेकिन काम सिर्फ़ एक ही करता है या भागीदारों की लगाई गई पूंजी का अनुपात बराबर नहीं है तो ऐसे मामलों में मुनाफ़े और फ़ायदे की तक़सीम से पहले पूर्व निर्धारित शर्तों की बुनियाद पर मुआवज़ा स्वीकार किया गया है। वास्तव में ख़तरे को रोकने के लिए हरसंभव उपाय किया गया है। इसके बावजूद इसलाम यह आग्रह करता है कि एग्रीमेंट वाले तमाम मामलों में नफ़ा और नुक्सान दोनों में हिस्सेदारी करनी चाहिए।
देश का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में अच्छे और बुरे आर्थिक परिणाम की तमीज़ नहीं की जाती। अल्कोहल की पैदावार और डिस्ट्रीब्यूशन और मार्केटिंग आदि में लगे समय, साधन और श्रम और फिर सेहत के लिए उसके ख़तरे और सामाजिक नुक्सान, ये सब इकोनॉमिक आउट पुट में शुमार होती हैं और जीडीपी का हिस्सा हैं लेकिन दरहक़ीक़त ये समाज, परिवार और घर के लिए बेहद घातक है। इसी तरह क़र्ज़ बढ़ती हुई सतहें और घरों की तालाबंदी से आम तौर पर परिवार बर्बाद होते हैं और बड़े पैमाने पर सामाजिक बुराईयां फैलती हैं। क़र्ज़ों का रिवाज जैसे जैसे बढ़ता है तो एक हक़ीक़ी ख़तरा ‘फ़ाइनेंशियल मेल्टडाउन‘ यानि आर्थिक जड़ता की शक्ल में ज़ाहिर होता है। जिससे आर्थिक समस्याएं बढ़ जाती हैं। जीडीपी नागरिकों के कल्याण से बहुत कम ताल्लुक़ रखती है। दौलतमंद पश्चिमी देशों में जीडीपी की सतह और तरक्क़ी की दर बहुत ऊंची होने के बावजूद वहां लाखों लोग ग़रीबी में जी रहे हैं।
पूरी क़ौम के एक बड़े से केक में से सारे नागरिकों को एक बड़ा टुकड़ा मिलेगा। यह बात तक़सीम के ग़ैर बराबरी वाले सिस्टम की वजह से यक़ीनी नहीं है। (यानि पूरी क़ौम या देश की कुल पैदावार बहुत ज़्यादा होने के बावजूद यह ज़रूरी नहीं है कि सारे ही नागरिकों की आमदनी का स्तर बढ़ गया है) इसके खि़लाफ़ इसलाम के आर्थिक मॉडल की कामयाबी यह है कि यह हरेक नागरिक की बुनियादी ज़रूरतों की पूर्ति को यक़ीनी बनाने की क्षमता रखता है।
इमाम बुख़ारी रह. ने इब्ने उमर रज़ि. से रिवायत नक़ल की है कि ‘‘पवित्र पैग़म्बर स. ने फ़रमाया: इमाम राई है और अपनी रिआया (प्रजा) के लिए ज़िम्मेदार व जवाबदेह है।‘‘  और  ‘‘ऐ आदम के बेटे ! क्या तुम अपने पास कुछ रखते हो ?, सिवाय उसके जो कुछ तुमने खा लिया और ख़र्च कर लिया, जो तुमने पहना और उतार दिया और जो कुछ तुमने भेंट कर दिया और अपने लिए बचाकर रख लिया।‘‘
इसलाम में आय का वितरण आर्थिक व्यवस्था का आधार है और यह हुकूमत की ख़ास ज़िम्मेदारी है। दौलत/माल की गर्दिश पूरे समाज में होनी चाहिए, न कि महज़ अमीरों और दौलतमंदों के दरम्यान ही घूमता रहे। पैग़म्बर मुहम्मद स. ने मदीने हिजरत करने के मौक़े पर अन्सार से मुहाजिरों को माल दिलवाया। इब्ने अब्बास रज़ि. के हवाले से रिवायत किया गया है कि पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने अन्सार से फ़रमाया-‘‘क्या तुम इस बात को पसंद करते हो कि तुम अपने घर और अपने माल अपने पास रखो और मैं तुम्हें इस माले ग़नीमत में से कुछ न दूं ?‘‘
इसके अलावा सोने और चांदी को जमा करके रखना जो कि इसलामी देश की करेंसी है, सख्ती के साथ मना है।
परमेश्वर कहता है: जो लोग सोना और चांदी जमा करके रखते हैं और परमेश्वर के मार्ग में ख़र्च नहीं करते, उन्हें एक दर्दनाक यातना की शुभसूचना दे दो. (सूरह अत्-तौबा 34)
राष्ट्रीय सहारा उर्दू दिनांक 9 जुलाई 2012 पृष्ठ 7 में प्रकाशित 

Monday, January 23, 2012

सत्य की खोज -Maulana Wahiduddin Khan

यह जगत एक बहुत बड़ी किताब की तरह हमारे सामने फैला हुआ है,पर यह एक ऐसी अनोखी किताब है, जिसके किसी पृष्ठ पर इसके विषय और इसके लेखक का नाम लिखा हुआ मौजूद नहीं। यद्यपि इस किताब का एक-एक शब्द बोल रहा है कि इसका विषय क्या हो सकता है और इसका लेखक कौन है।

जब इंसान आंख खोलता है और देखता है कि वह एक विशाल और व्यापक जगत के बीच खड़ा हुआ है तो सहज ही उसके ज़हन में यह प्रश्न उठता है कि

‘‘मैं क्या हूँ, मैं कौन हूं और यह संसार क्या है ?’’

वह अपने आपको और जगत को समझने के लिए बेचैन हो उठता है, वह अपने स्वभाव (nature) में समाये हुए संकेतों को पढ़ने की कोशिश करता है। दुनिया में जिन परिस्थितियों का उसे सामना करना पड़ता है, वह चाहता है कि वह उनके वास्तविक कारण को जाने। उसके ज़हन में अनगिनत प्रश्न उठते हैं, जिनका उत्तर मालूम करने के लिए वह बेचैन रहता है, पर वह नहीं जानता कि उनका उचित उत्तर क्या है।

ये प्रश्न केवल दार्शनिक प्रकार के प्रश्न नहीं हैं, बल्कि ये आदमी के स्वभाव, उसके निजत्व, उसकी फितरत (nature) और उसके हालात का सहज नतीजा हैं। ये ऐसे प्रश्न हैं, जिन से दुनिया में लगभग हर व्यक्ति एक बार गुज़रता है। इनका उत्तर न मिलने पर कोई पागल हो जाता है, कोई आत्महत्या कर लेता है, किसी की सारी ज़िंदगी बेचैनियों में बीत जाती है, और कोई अपने असली सवाल का जवाब न पाकर दुनिया की तुच्छ दिलचस्पियों में खो जाता है। वह चाहता है कि उनमें खो कर वह इस मानसिक परेशानी से छुटकारा पा ले। वह जो कुछ पा सकता है, उसको पाने की कोशिश में वह उसको भुला देता है जिसको वह पा न सका।

इन प्रश्नों को हम दो शब्दों में सत्य की खोज (search for truth) कह सकते हैं। यह प्रश्न क्या हैं। इनको अलग अलग ढंग से बयान किया जा सकता है, पर सुविधा के लिए मैं इनको निम्नलिखित तीन शीर्षकों में बांटना चाहूंगाः

1. सृष्टा की खोज (Search for Creator)

2. उपास्य (माबूद) की खोज (Search for God)

3. अंत की खोज (Search for Destination)

सत्य की खोज, वास्तव में, नाम है इन्हीं तीन प्रश्न के उत्तर पाने का। चाहे जिन शब्दों में आप इन प्रश्नों को व्यक्त करें, पर वह इन्हीं का बदला हुआ रूप होगा। प्रकट रूप से ये प्रश्न ऐसे हैं, जिनके बारे में हम कुछ नहीं जानते, और न किसी पहाड़ की चोटी पर ऐसा कोई बोर्ड लगा हुआ दिखाई देता है, जहां इनका उत्तर लिख कर रख दिया गया हो। पर सच्चाई यह है कि इन प्रश्नों के अंदर ही उसका उत्तर मौजूद है। जगत अपनी सच्चाई की तरफ़ आप इशारा करता है। यह इशारा इतना साफ़ है कि अगर हमें किसी तरह सत्य का ज्ञान हो जाए तो हमारा दिल पुकार उठता है कि निश्चय ही यह सत्य है, इसके सिवा, जगत में कोई दूसरी चीज़ सत्य की हैसियत से मौजूद नहीं।

सृष्टा की खोज (Search for Creator)

जगत को देखते ही हर औरत और मर्द के ज़हन में सबसे पहला सवाल यह उभरता है कि इसको बनाने वाला कौन है। वह कौन है जो इस महान कारख़ाने को चला रहा है।

पहले ज़माने में लोग यह समझते थे कि बहुत सी अनदेखी ताक़तें इस कारख़ाने की मालिक हैं। एक बड़े ईश्वर की निगरानी में बहुत से छोटे-छोटे ईश्वर इस कारख़ानें को संभाले हुए है। मौजूदा ज़माने में भी बहुत से लोग इसी तरह की विचारधारा रखते हैं। पर तर्क और सिद्धांत की दुनिया अब इस विचारधारा को नहीं मानती। आज वह सिर्फ़ एक निराधार (baseless) दृष्टिकोण है, न कि कोई आधारित दृष्टिकोण।

आज जो लोग अपने आपको प्रगतिशील कहते हैं और अपने को नए दौर का आदमी मानते हैं, वे शिर्क यानी अनेक ईश्वरों की साझेदारी को मानने के बजाए, नास्तिकता (atheism) के क़ायल हैं। उनका विचार है कि यह जगत किसी विवेकशील और जागृत हस्ती की रचना नहीं है, बल्कि वह एक इत्तिफ़ाक़ या इत्तिफ़ाक़ी हादसे का नतीजा है।

उनका मानना है कि जब कोई घटना संयोग से घट जाती है तो उसके कारण कुछ और प्रतिघटनाएं वुजूद में आती हैं। इस तरह कारण (cause) और कार्य (effect) का एक लंबा सिलसिला चल पड़ता है। और यही सिलसिला वह कारण है, जिसके द्वारा यह तमाम जगत चल रहा है।

इस विचारधारा में दो बुनियादी चीज़ें हैंएक, संयोग। और दूसरे, कार्य-कारण का नियम (principle of causation)

यह विचारधारा कहती है कि अब से लगभग दो लाख अरब साल पहले इस जगत या सृष्टि का वुजूद न था। उस समय न तो सितारे थे और न नक्षत्र, पर शून्य (space)में पदार्थ (matter) मौजूद था। यह पदार्थ उस समय जमी हुई ठोस हालत में न था। उसका रूप इतना जटिल न था, बल्कि वह अपनी सरल और प्रारंभिक शक्ल में था, यानी यह पदार्थ निपट इलेक्ट्रोन और प्रोटोन की शक्ल में पूरे आसमान या पूरे शून्य (space) में समान रूप से फैला हुआ था। दूसरे शब्दों में, हम कह सकते हैं कि यह पूरी सृष्टि, बहुत छोटे-छोटे कणों या सूक्ष्म परमाणुओं के ग़ुबारे से भी हुई थी। उस समय पदार्थ बिल्कुल संतुलन की हालत में था। उसमें किसी तरह की हरकत और किसी तरह की गति न थी। गणित की दृष्टि से यह संतुलन ऐसा था कि अगर उसमें कोई ज़रा सी भी हलचल पैदा कर दे तो फिर यह संतुलन क़ायम नहीं रह सकता, यह हलचल बढ़ती ही चली जाएगी। अगर इस पहली पहली हलचल को मान लीजिए तो इस विचारधारा के अनुसार, इसके बाद की तमाम घटनाएं गणित के अनुसार साबित हो जाती हैं।

पहले-पहले ऐसा हुआ कि पदार्थ के इस बादल में हलकी सी हलचल पैदा हुई, जैसे किसी हौज़ के पानी को कोई हाथ डाल कर हिला दे। सृष्टि की इस शांत दुनिया में यह हलचल किस ने पैदा की, इसके बारे में कुछ नहीं मालूम। लेकिन हलचल हुई और यह हलचल बढ़ती चली गई। फिर हलचलों का एक सिलसिला चल पड़ा। नतीज़ा यह हुआ कि पदार्थ सिमट-सिमट कर अलग-अलग जगहों में जमा होना शुरु हो गया। यही वह इकट्ठा हुआ पदार्थ है, जिसको हम सितारे (stars), ग्रह (planet) और नक्षत्र (nebula) कहते हैं।

सवाल यह है कि जब सृष्टि में सिर्फ़ एक गतिहीन पदार्थ था, उसके सिवा यहाँ कोई और चीज़ मौजूद न थी तो यह अजीबो-ग़रीब इत्तिफ़ाक़ कहां से आ गया, जिसने पूरी सृष्टि को गति दे दी। जिस घटना का कारण न तो पदार्थ में मौजूद था और न पदार्थ के बाहर, वह घटना घटी तो कैसे ?

फिर यह जगत महज़ इत्तिफ़ाक़ से बन गया तो क्या घटनाएं अनिवार्य रूप से वही रुख़ एख़्तियार करने पर मजबूर थीं, जो उन्होंने एख़्तियार किया?

क्या इसके सिवा कुछ और नहीं हो सकता था। क्या ऐसा संभव नहीं था कि सितारे आपस में टकरा कर तबाह हो जाते, पदार्थ में हरकत पैदा होने के बाद क्या यह ज़रूरी था कि वह महज़ हरकत न रहे, बल्कि वह विकासशील हरकत का एक सिलसिला बन जाए और ये तमाम सिलसिला मौजूदा जगत को अस्तित्व में लाने के लिए दौड़ना शुरू कर दे?

आख़िर वह कौन-सा तर्कशास्त्र (logic) था, जिसने सितारों के बनते ही उनको अथाह आसमान में बिलकुल सही सही ढंग से फिराना शुरू कर दिया।

फिर वह कौन सा तर्कशास्त्र था, जिसने सृष्टि के एक उपयुक्त स्थान पर सौर-मंडल (solar system) को बनाया। और पृथ्वी पर वह चीज़ पैदा की जिसको लाइफ़ सपोर्ट सिस्टम (life support system) कहा जाता है, जिससे यहां ज़िंदगी का वुजूद संभव पैदा हो सका। ऐसा लाइफ़ सपोर्ट सिस्टम आज तक सृष्टि की बेशुमार दुनियाओं में से किसी एक दुनिया में भी मालूम नहीं किया जा सका है।

फिर वह कौन सा तर्कशास्त्र था जो एक ख़ास अवस्था में पहुंच कर, बेजान पदार्थ से जानदार प्राणियों के जन्म का कारण बन गया? क्या इस बात की कोई ठोस व्याख्या की जा सकती है कि धरती पर ज़िंदगी किस तरह और क्यों अस्तित्व में आई और वह किस नियम के तहत लगातार पैदा होती चली जा रही है?

फिर वह कौन-सा तर्कशास्त्र था, जिसने सृष्टि के एक छोटे से हिस्से में हैरत अंगेज़ तौर पर वे तमाम चीज़ें पैदा कर दीं, जो हमारे जीवन, हमारे विकास और हमारी सभ्यता (civilization) के लिए ज़रूरी थीं।

फिर वह कौन सा तर्कशास्त्र है जो इन हालात को हमारे लिए निरंतर बाक़ी रखे हुए है। क्या महज़ एक इत्तिफ़ाक़ का हो जाना इस बात का पर्याप्त कारण था कि ये सारी घटनाएं इतने ख़ूबसूरत ढंग से और बिलकुल ठीक-ठीक क्रम के साथ लगातार घटती चली जाएं, अरबों और खरबों साल तक उनका सिलसिला जारी रहे, और फिर भी उनमें कोई फर्क़ न आने पाये?

क्या इस बात की सचमुच कोई व्याख्या की जा सकती है कि महज़ इत्तिफ़ाक़ से घटने वाली घटनाओं में तालमेल (harmony) की यह ख़ूबी कहां से आ गई, और इतने अजीबो-ग़रीब ढंग से लगातार विकास करने का रुझान उसमें कहां से पैदा हो गया?

यह इस प्रश्न का उत्तर था कि यह जगत कैसे पैदा हुआ। इसके बाद यह सवाल उठा कि इस जगत का चलाने वाला कौन है। वह कौन है, जो इस महान और विशालतम कारख़ाने को इतने व्यवस्थित ढंग से चला रहा है।

इस कठिनाई को हल करने के लिए कार्य-कारण का सिद्धांत (Principle of Causation) पेश किया गया, जिसका अर्थ यह है कि पहली हरकत के बाद जगत में कारण और कार्य का एक ऐसा सिलसिला चल पड़ा है कि एक के बाद एक, तमाम घटनाएँ घटती चली जा रही हैं।

इसके साथ ही, सत्तरहवीं सदी में यह आन्दोलन चलाया गया कि पूरी सृष्टि को एक मशीन साबित किया जाए। इसलिए बहुत ज़ोरदार ढंग से यह दावा किया गया कि ज़िंदगी भी महज़ एक मशीन है। यहां तक कहा गया कि न्यूटन (Newton), बाख़(Bach) और माइकल एंजिलो(Michel Angelo) के दिमाग़ और प्रिंटिंग मशीन में कुछ ज्य़ादा फ़र्क नहीं था, सिवाय इसके कि उनके दिमाग़ों की बनावट थोड़ी-बहुत पेचीदा (जटिल) ज़्यादा थी और उनका काम सिर्फ़ यह था कि वह बाहरी प्रेरणाओं का पूरा-पूरा जवाब दें।

लेकिन अब विज्ञान इस तरह के यकतरफ़ा सिद्धांत को नहीं मानता। सापेक्षता का सिद्धांत (Theory of Relativity) कार्य-कारण के नियम को एक धोखा मानता है। वह इस को सिर्फ़ एक भ्रम (illusion) कहता है। अब नई जानकारी के आधार पर, वैज्ञानिक इस बात पर एकमत हैं कि हमारा ज्ञान हमें एक ग़ैर-मशीनी सच्चाई (non-mechanical reality) की तरफ़ ले जा रहा है।

वह सृष्टि को एक मशीनी अमल (mechanical act) के बजाए, एक ज़हनी अमल (mental act) का नतीजा बता रहा है।

प्रसिद्ध वैज्ञानिक सर जेम्ज़ जीन्ज़ (James Jeans) के शब्दों में जब सृष्टि एक ऐसी सृष्टि है जिसमें ज़हनी अमल (mental act) मौजूद है, तो फिर इसकी रचना करने वाला एक ज़हन (mind) होगा, न कि कोई मशीनी अमलः

If the universe is a universe of thought, then its creation must have been an act of thought.

(The Mysterious Universe, p. 133 (1948).

हमारा आधुनिक विज्ञान हमको बता रहा है कि सृष्टि की रचना करने वाला एक ख़ालिक़ (Creator) है। सृष्टि किसी स्वचालित (automatic) मशीन की पैदावार नहीं। अब आदमी दोबारा उसी मंज़िल पर पहुंच गया है, जिसको छोड़ कर उसने अपना नया सफ़र शुरू किया था।

माबूद (उपास्य) की खोज (Search for God)

यह सृष्टी (Creator) की खोज का मसला था। इसके बाद दूसरी चीज़ जो आदमी जानना चाहता है, वह यह है कि ‘‘मेरा माबूद कौन है, वह कौन है मैं जिस की उपासना करूं, मैं जिसके सामने अपना संपूर्ण समर्पण कर दूं ?’’

हम अपनी ज़िंदगी में साफ़ तौर पर एक ख़ालीपन (शून्यता) महसूस करते हैं, पर हम नहीं जानते कि इस ख़ालीपन को हम कैसे दूर करें! यही शून्यता का एहसास है, जिसे मैंने ‘‘माबूद की खोज’’ कहा है। (माबूद, यानी वह परमपूज्यनीय जिसके अलावा किसी और की आराधना करना जायज़ न हो) ख़ालीपन का यह एहसास दो पहलुओं से होता है। अपने अस्तित्व और बाहर की दुनिया पर जब हम नज़र ड़ालते हैं तो दो बहुत तीव्र और गहरे भाव हमारे अंदर उमड़ते हैंपहला, धन्यवाद, कृतज्ञता और एहसानमंदी (gratefulness) का। और दूसरा, हीनता और विनम्रता (helplessness) का!

ज़िंदगी में हम जिस तरफ़ भी देखते हैं, हमें साफ़ दिखाई देता है कि हमारी ज़िंदगी किसी के एहसानों से ढकी हुई है। यह देख कर हमारे अंदर देने वाले के लिए बेपनाह शुक्र और धन्यवाद का भाव उमड़ पड़ता है। हम अपनी तमाम अनमोल आस्थाएँ और अर्चनाएँ उस परम उपकारी हस्ती पर न्यौछावर कर देना चाहते हैं।

यह महज़ एक दार्शनिक (philosophical) खोज नहीं है, बल्कि हमारे मनोविज्ञान (psychology) से इसका बहुत गहरा संबंध है। यह सवाल महज़ एक बाहरी मसले को हल करने का सवाल नहीं है, बल्कि यह हमारी अंदरुनी प्यास है। हमारा पूरा वुजूद इस सवाल का जवाब चाहता है।

ज़रा सोचिए, क्या कोई संवेदनशील आदमी इस सच्चाई को नज़रअंदाज़ कर सकता है कि वह इस सृष्टि में एक स्थायी घटना के रूप में मौजूद है, जबकि इसमें उसकी अपनी कोशिशों का कोई दख़ल नहीं है। वह अपने आप को एक ऐसे शरीर में पा रहा है, जिससे बेहतर शरीर की वह कल्पना नहीं कर सकता। इस शरीर को उसने ख़ुद नहीं बनाया। उसे ऐसी अजीबो-ग़रीब मानसिक क्षमताएँ दी गई हैं, जो किसी दूसरे प्राणी को नहीं दी गईं। इन क्षमताओं को पाने के लिए उसने कुछ भी नहीं किया है

और न वह कुछ कर सकता है। हमारा अस्तित्व निजी नहीं है, बल्कि वह एक वरदान है। यह वरदान किसने दिया है, आदमी का मन इस सवाल का जवाब मांगता है, ताकि वह अपने इस महान दाता का शुक्र अदा कर सके, वह उसके प्रति अपना गहरा आभार प्रकट कर सके।

फिर अपने शरीर के बाहर देखिए। दुनिया में हम इस हाल में पैदा होते हैं कि हमारे पास हमारा कुछ भी नहीं होता। न हमारा सृष्टि के ऊपर बस चलता कि उसको अपनी ज़रूरत के अनुरूप बना सकें। हमारी हज़ारों ज़रूरतें हैं, पर किसी एक ज़रूरत को भी हम अपने आप पूरा नहीं कर सकते, लेकिन हम देखते हैं कि दुनिया में हैरत-अंगेज़

तौर पर हमारी तमाम ज़रूरतों को पूरा करने का इंतिज़ाम किया गया है। ऐसा मालूम होता है कि सृष्टि अपने तमाम साधनों के साथ इस बात के इंतिज़ार में है कि आदमी पैदा हो और वह उसकी सेवा में लग जाए।

उदाहरण के तौर पर आवाज़ को लीजिए। आवाज़ के माध्यम से हम अपनी बात और अपने विचार दूसरों तक पहुंचाते हैं। यह कैसे संभव हुआ कि हमारे ज़ेहन में पैदा होने वाले विचार हमारी ज़बान का कंपन बन कर दूसरे के कान तक पहुंचें और वह उनको समझने लायक़ आवाज़ों के रूप मे सुन सके? इसके लिए हमारे अंदर और हमारे बाहर, अनगिनत व्यवस्थाएं की गई हैं। उनमें से बीच का एक माध्यम वह है, जिसे हम हवा (air) कहते हैं। हम जो शब्द बोलते हैं, वे बेआवाज़ लहरों के रूप में हवा पर उसी तरह सफ़र करते है, जिस तरह पानी की सतह पर लहरें पैदा होती हैं और बढ़ती चली जाती हैं।

मेरे मुंह से निकली हुई आवाज़ का आप तक पहुंचने के लिए बीच में हवा का मौजूद होना ज़रूरी है। बीच में हवा का यह माध्यम न हो तो आप मेरे होंट हिलते हुए देखेंगे, पर आप मेरी आवाज़ न सुन सकेंगे। मिसाल के तौर पर एक बंद फ़ानूस के अंदर बिजली की घंटी रख कर बजाई जाए तो उसकी आवाज़ साफ़ सुनाई देगी, लेकिन अगर फ़ानूस के अंदर की पूरी हवा निकाल दी जाए और उसके बाद घंटी बजाई जाए तो आप शीशे के अंदर घंटी को बजता हुआ देखेंगे, पर उसकी आवाज़ बिल्कुल भी न सुन सकेंगे, क्योंकि घंटी के बजने से जो कंपन पैदा होता है, उसको ग्रहण करके आपके कानों तक पहुंचाने के लिए, फ़ानूस के अंदर हवा मौजूद नहीं है।

यह उन अनगिनत प्राकृतिक व्यवस्थाओं में से सिर्फ़ एक है, जिसका मैंने वर्णन नहीं किया है, बल्कि यहाँ मैंने उसका सिर्फ़ नाम लिया है। अगर इसका और इससे संबंधित दूसरी चीज़ों का विस्तृत वर्णन किया जाए तो इसके लिए करोड़ों पृष्ठ चाहिए होंगे, फिर भी उनका वर्णन ख़त्म नहीं होगा।

यह उपकार और सुविधाएं, जिनका उपभोग हर आदमी कर रहा है, और जिनके बिना इस ज़मीन पर आदमी की ज़िंदगी और सभ्यता (civilization) की कोई कल्पना नहीं की जा सकती, मनुष्य जानना चाहता है कि ये सब किसने उसके लिए उपलब्ध किया है। हर पल जब वह किसी उपकार से दो-चार होता है तो उसके दिल में बेपनाह शुक्र, अथाह कृतज्ञता और असीमित अहो भाव की अनुभूति पैदा होती है। आदमी चाहता है कि वह अपने दाता को पाये और अपने आपको उसके क़दमों में डाल दे। दाता के एहसान को मानना, उसको अपने दिल की गहराइयों में जगह देना और अपनी श्रेष्ठतम भावनाओं को उसके सामने समर्पित करना, यह इंसान की फ़ितरत का सबसे ताक़तवर जज़्बा है।

हर आदमी जो अपनी ज़िंदगी और अपने आस पास की दुनिया पर ध्यान देता है, उसके अंदर यह अनुभूति बहुत शिद्दत से उभरती है। फिर क्या इस अनुभूति का कोई जवाब नहीं। क्या आदमी इस जगत में एक अनाथ बच्चा है, जिसके भीतर उमड़ते हुए प्रेम और समर्पण के भाव की तृप्ति के लिए कोई हस्ती मौजूद न हो?

क्या यह एक ऐसी सृष्टि है, जहां एहसान और उपकार तो मौजूद है, पर उसका दाता यहाँ नज़र नहीं आता। यहां अनुभूति है, पर अनुभूति की तृप्ति के लिए कोई रास्ता यहाँ मौजूद नहीं?

माबूद की खोज का यह एक पहलू था। इसका दूसरा पहलू यह है कि आदमी की हैसियत और उसके हालात का यह तक़ाज़ा है कि इस अनन्त सृष्टि में उसका कोई सहारा हो। अगर हम आंख खोल कर देखें तो पाएंगे कि हम इस दुनिया में एक बहुत छोटे और बेबस प्राणी हैं।

ज़रा उस शून्य की कल्पना कीजिए, जिसमें हमारी यह पृथ्वी सूरज के चारों ओर घूम रही है। आप जानते हैं कि पृथ्वी की गोलाई लगभग पच्चीस हज़ार मील है। वह नाचते हुए लट्टू की तरह अपनी धुरी पर लगातार इस तरह घूम रही है कि हर चौबीस घंटे में उसका एक चक्कर पूरा हो जाता है। यानी पृथ्वी की रफ़्तार लगभग एक हज़ार मील प्रति घंटा है। इसी के साथ वह सूरज के चारों तरफ़ अट्ठारह करोड़ साठ लाख मील लम्बे दायरे में बहुत तेज़ रफ़्तार से दौड़ रही है। अथाह शून्यं में इतनी तेज़ रफ़्तार से दौड़ती हुई पृथ्वी पर हमारा अस्तित्व क़ायम रखने के लिए पृथ्वी की रफ़्तार को एक ख़ास अंदाज़े के अनुसार रखा गया है। यदि ऐसा न हो तो पृथ्वी के ऊपर आदमी की हालत, उन कंकरों की तरह हो जाती, जो किसी चलते हुए पहिए पर रख दिए गए हों।

इसी के साथ दूसरी व्यवस्था यह है कि पृथ्वी की आकर्षण शक्ति (gravity) हमको अपनी ओर खींचे हुए है। ऊपर से हवा का ज़बरदस्त दबाव है। हमारे ऊपर हवा का जो दबाव पड़ रहा है, वह हमारे शरीर के प्रति वर्ग इंच पर पंदरह पौंड तक है, यानी एक औसत आदमी के पूरे शरीर पर लगभग दस हज़ार किलो का दबाव। इस आश्चर्यजनक व्यवस्था ने हमको अंतरिक्ष में लगातार दौड़ती हुई पृथ्वी के चारों तरफ़ क़ायम और आबाद कर रखा है।

फिर ज़रा सूरज पर ध्यान दीजिए। सूरज की गोलाई आठ लाख पैंसठ हज़ार मील है, जिसका अर्थ यह है कि वह हमारी पृथ्वी से दस लाख गुना बड़ा है। यह सूरज, आग का दहकता हुआ एक समुद्र है। उसके क़रीब कोई भी चीज़ ठोस हालत में नहीं रह सकती। पृथ्वी और सूर्य के बीच इस समय लगभग साढ़े नौ करोड़ मील का फ़ासला है। अगर इसके बजाय, पृथ्वी उसके आधे फ़ासले पर हो तो सूरज की गर्मी से चीज़ें जलने लगें। और अगर सूरज, चांद की जगह पर, यानी दो लाख चालीस हज़ार मील के फ़ासले पर आ जाए, तो पृथ्वी पिघल कर भाप में परिवर्तित हो जाए। यही सूरज है, जिसकी बदौलत पृथ्वी पर जीवन है। इस उद्देश्य के लिए उसको एक ख़ास फ़ासले पर रखा गया है। अगर सूरज दूर चला जाए तो हमारी ज़मीन बर्फ़ की तरह जम जाए, और अगर वह क़रीब आ जाए तो हम सब लोग जल-भुन कर राख हो जाएं।

फिर ज़रा इस सृष्टि की व्यापकता और उसके विस्तार को देखिए। उस आकर्षण शक्ति पर ध्यान दीजिए जो इस महान सृष्टि को संभाले हुए है। सृष्टि एक असीम विस्तृत कारख़ाना है। इसके विस्तार का अंदाज़ा खगोल विज्ञान (astronomy) की दृष्टि में यह है कि प्रकाश, जिसकी रफ़तार एक लाख छियासी हज़ार मील प्रति सेकंड है, उसको सृष्टि के चारों ओर एक चक्कर पूरा करने में कई अरब साल लगेंगे। यह सौर-मण्डल (solar system), जिसमें हमारी पृथ्वी भी शामिल है, देखने में तो बहुत बड़ा मालूम होता है, लेकिन पूरी सृष्टि की तुलना में इसकी कोई हैसियत नहीं। सृष्टि में इससे बहुत बड़े बड़े अनगिनत सितारे असीम विस्तार में फैले हुए हैं। इन सितारों में बहुत से सितारे इतने बड़े हैं कि हमारा पूरा सौर-मण्डल उसके ऊपर रखा जा सकता है। जो आकर्षण शक्ति इन अनगिनत दुनियाओं को संभाले हुए है, उसकी महानता की कल्पना इससे की जा सकती है कि सूरज जिस बेपनाह ताक़त से पृथ्वी को अपनी ओर खींच रहा है और उसको अनन्त-असीम शून्य में गिर कर बरबाद होने से रोके हुए है, वह अदृश्य बल अकल्पनीय हद तक शक्तिशाली है। अगर इस उद्देश्य के लिए किसी भौतिक चीज़ से पृथ्वी की बांधना पड़ता तो जिस तरह घास की पत्तियाँ ज़मीन को ढके हुए हैं, उसी तरह धातु के तारों से पृथ्वी का पूरा धरातल ढक जाता।

हमारी ज़िंदगी पूरी तरह ऐसी ताक़तों पर निर्भर है, जिन पर हमारा कोई बस नहीं।

आदमी की ज़िंदगी के लिए दुनिया में जो व्यवस्थाएं हैं और जिनकी मौजूदगी के बिना यहाँ जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती, वह बहुत ऊंचे स्तर पर हो रही हैं। उनको अस्तित्व में लाने के लिए इतनी असाधारण शक्ति चाहिए कि आदमी स्वयं उन्हें अस्तित्व में लाने की कल्पना भी नहीं कर सकता। सृष्टि के लिए काम करने का जो तरीक़ा तय किया गया है, उसे निश्चित करना तो दरकनार, उस पर कंट्रोल करना भी आदमी के बस की बात नहीं। वह देखता है कि अगर जगत की असाधारण शक्तियां उसका साथ न दें तो वह ज़मीन पर ठहर भी न सकें, ज़मीन पर एक सभ्य ज़िंदगी का निर्माण तो बहुत दूर की बात है।

ऐसे एक संसार में जब आदमी अपने तुच्छ अस्तित्व को देखता है तो वह अपने आपको उससे भी ज़्यादा बेबस महसूस करने लगता है, जितना कि समुद्र की लहरों के बीच एक चींटी अपने आपको बचाने के लिए बेबस महसूस करती है। वह चाहता है कि कोई हो जो इस अथाह जगत में उसका सहारा बन सके। वह एक ऐसी हस्ती की पनाह ढूंढ़ना चाहता है, जो जागृतिक शक्तियों से ऊपर हो, जिसकी पनाह में आ जाने के बाद वह अपने आपको सुरक्षित और निश्चिंत महसूस कर सके।

ये दो भावनाएं हैं, जिनको मैंने माबूद की खोज का नाम दिया है। माबूद की खोज दरअसल एक स्वाभाविक जिज्ञासा है, जिसका अर्थ एक ऐसी हस्ती की खोज है जो आदमी के प्रेम और आस्था का केन्द्र बन सके। आधुनिक युग में राष्ट्र, देश, वतन, क़ौम और राज्य को आदमी की इस प्यास का जवाब बनाकर प्रस्तुत किया गया है। नई सभ्यता यह कहती है कि अपने राष्ट्र, अपने वतन और अपने राज्य को वह दर्जा दो कि वह तुम्हारी भक्ति का केन्द्र बने और उससे प्रतिबðता और लगाव को अपना सहारा बनाओ। इन चीज़ों को माबूद के नाम पर पेश नहीं किया जाता, पर जिंदगी में इनको जो दर्जा दिया गया है, वह लगभग वही है, जो दरअसल एक माबूद का, एक आराध्य का होना चाहिए। अपने देश से मुहब्बत बिलाशुब्हा एक स्वाभाविक जज़्बा है। वह इंसान इंसान नहीं जो देशभक्ति की भावना से ख़ाली हो। लेकिन इन चीज़ों को माबूद की जगह देना बिल्कुल ऐसा ही है, जैसे किसी को एक जीवन-साथी की तलाश हो और उसे आप पत्थर की एक सिल पेश कर दें।

खुली हुई बात है कि आदमी में तलाश की जो भावना सिर उठाती है, उसकी जड़ें आदमी के मनोविज्ञान (psychology) में बहुत गहराई तक फैली हुई हैं। वह एक ऐसी हस्ती की तलाश में है, जो सारी सृष्टि पर छाई हुई हो। इस चाह का जवाब किसी भौगोलिक हिस्से में नहीं मिल सकता। राष्ट्रभक्ति की ये चीज़ें आदमी की उस भावना को संतुष्ट नहीं कर सकतीं जिसका संबंध उसके अपने माबूद से है। उसके लिए एक जगत-व्यापी अस्तित्व चाहिए। आदमी को अपने प्रेम और अस्थाओं के केन्द्र के लिए एक ऐसी ताक़त की खोज है, जो किसी की मोहताज न हो, जो तमाम सृष्टि पर सत्तारूढ़ हो। जब तक इंसान ऐसे एक अस्तित्व को नहीं पाएगा, उसका अंदरूनी ख़ालीपन

इसी तरह बाक़ी रहेगा, कोई दूसरी चीज़ इस ख़ालीपन को कभी नहीं भर सकती।

अंत की खोज (Search for Destination)

सत्य की खोज का तीसरा पहलू है— अपने अंत या अपने अंजाम की खोज। आदमी जानना चाहता है कि वह कहां से आया है और कहां जाएगा। वह अपने अंदर बहुत-सी तमन्नाएं और बहुत-सी आकांक्षाएं पाता है। वह मालूम करना चाहता है कि ये हौसले और ये अनंत आकांक्षाएं कैसे पूरी होंगी! वह इस सीमित जीवन के बजाय एक असीमित जीवन चाहता है, पर वह नहीं जानता कि असीमित जीवन की यह इच्छा कैसे पूरी होगी। उसके अंदर बहुत सी नैतिक भावनाएं और मानवीय संवेदनाएं हैं, जिन्हें इस दुनिया में बुरी तरह रौंदा जा रहा है। उसके मन में यह सवाल उठता है कि क्या वह अपनी इच्छित दुनिया को कभी पा न सकेगा? ये सवाल किस तरह आदमी के अंदर उबलते हैं और सृष्टि का अध्ययन किस तरह उसके ज़हन में यह सवाल पैदा करता है, यहां उसकी थोड़ी-सी व्याख्या करना उपयुक्त होगा।

जीव-विज्ञानियों (biologists) का विचार है कि आदमी अपने मौजूदा रूप में तीन लाख वर्ष से पृथ्वी पर मौजूद है। इसकी तुलना में सृष्टि की उम्र बहुत ज्यादा है, यानी दो लाख अरब साल। इससे पहले सृष्टि बिजली के कणों के एक ग़ुबार के रूप में थी, फिर उसमें हरकत हुई और पदार्थ सिमट-सिमट कर अलग-अलग जगहों पर जमा होना शुरू हो गए। यही वह जमा हुआ पदार्थ है, जिसको हम सितारे, ग्रह या नक्षत्र कहते हैं। पदार्थ के ये पिंड गैस के भयानक गोले के रूप में अनगिनत युगों तक शून्य में घूमते रहे। लगभग दो अरब साल पहले ऐसा हुआ कि सृष्टि का कोई बड़ा सितारा घूमता हुआ सूरज के पास आ निकला। यह सितारा उस समय अब से बहुत बड़ा था। जिस तरह चांद की आकर्षण-शक्ति से समुद्र में ऊंची-ऊंची लहरें उठती हैं, उसी तरह इस दूसरे सितारे के आकर्षण से हमारे सूरज पर एक बहुत बड़ा तूफ़ान उठा, ज़बरदस्त लहरें पैदा हुईं, जो धीरे-धीरे बहुत ऊंची होती गईं। इससे पहले कि वह सितारा सूरज से दूर हटना शुरू हो, उसकी आकर्षण-शक्ति इतनी ज़्यादा बढ़ गई कि सूरज की इन ज़बरदस्त गैसी-लहरों के कुछ हिस्से टूट कर एक झटके के साथ दूर अंतरिक्ष में निकल गए। यही टुकड़े बाद में ठंडे होकर सौर-मंडल (solar system) के सदस्य बने। इस समय ये सब टुकड़े सूरज के चारों तरफ़ घूम रहे हैं। इन्हीं में से एक हमारी पृथ्वी है।

शुरू में पृथ्वी एक अंगारे की हालत में सूरज के चारों ओर घूम रही थी, लेकिन फिर शून्य में लगातार अपनी गर्मी छोड़ते रहने के कारण पृथ्वी ठंडी होना शुरू हुई। ये प्रक्रिया करोड़ों साल तक चलती रही, यहां तक कि पृथ्वी बिल्कुल ठंडी हो गई। सूरज की गर्मी अब भी पृथ्वी के ऊपर पड़ रही थी। इस गर्मी के कारण पृथ्वी पर भाप उठना शुरू हुई और बादलों के रूप में उसके वायुमंडल के ऊपर छा गई। फिर ये बादल बरसना शुरू हुए और पूरी पृथ्वी पानी से भर गई। पृथ्वी का ऊपरी हिस्सा तो ठंडा हो गया था, पर उसका अंदरूनी हिस्सा अब भी गर्म था। इसका नतीजा यह हुआ कि पृथ्वी सिकुड़ने लगी। इसके कारण पृथ्वी के अंदर की गर्म गैसों पर दबाव पड़ा और वे बाहर निकलने लगीं। थोड़े-थोड़े समय के बाद ज़मीन फटने लगी। जगह-जगह बड़ी-बड़ी दरारें पड़ने लगीं। इस तरह समुद्री तूफ़ान, भयानक भूकंपों और आग उगलने वाले धमाकों में हज़ारों वर्ष बीत गए। इन्हीं भूकंपों के कारण पृथ्वी का कुछ हिस्सा ऊपर उभर आया और कुछ हिस्सा नीचे दब गया। दबे हुए हिस्सों में पानी भर गया और वे समुद्र कहलाए। उभरे हुए हिस्सों ने द्वीपों और महाद्वीपों का रूप ले लिया। कहीं-कहीं यह उभार इतना उठा कि ऊंची-ऊंची बाढ़ें-सी बन गईं। ये हमारी दुनिया के पहले पहाड़ थे।

भूगर्भशास्त्रियों (geologists) का विचार है कि लगभग डेढ़ अरब साल हुए, जब पहली बार पृथ्वी पर ज़िंदगी पैदा हुई। फिर लम्बे समय तक अनगिनत घटनाएं घटती रहीं, यहां तक कि मानव-जीवन के लिए अनुकूल परिस्थितियां बनीं और धरती पर आदमी पैदा हुआ।

इस विचारधारा के अनुसार, आदमी की ज़िंदगी की शुरूआत पिछले तीन लाख साल से हुई है। यह अवधि बहुत ही कम है। समय का जो रास्ता सृष्टि ने तय किया है, उसकी तुलना में आदमी का इतिहास पलक झपकने से ज्य़ादा लम्बा नहीं है। फिर इंसानियत की इकाई को लीजिए, तो मालूम होगा कि एक इंसान की उम्र का औसत, सौ साल से भी कम है। एक तरफ़ इस घटना को सामने रखें, फिर इस सच्चाई पर ध्यान दें कि सृष्टि में इंसान से बेहतर कोई अस्तित्व मालूम नहीं किया जा सका है।

धरती और आकाश की अरबों खरबों साल की गर्दिश के बाद जो सबसे उच्चतर प्राणी वजूद में आया, वह इंसान है। पर यह चमत्कारी अस्तित्व (इंसान) जो सारी दुनिया में सबसे ऊंचा दर्जा रखता है, जो तमाम मौजूद चीज़ों में सर्वश्रेष्ठ है, उसकी ज़िंदगी कुछ साल से ज़्यादा नहीं।

हमारा अस्तित्व जिन पदार्थों से बना है, उनकी उम्र तो अरबों-खरबों साल हो और हमारे मरने के बाद भी वे बाक़ी रहें, पर इन पार्थिव चीज़ों के मिलने से जो श्रेष्ठतम अस्तित्व बनता है, वह सिर्फ़ सौ वर्ष ज़िंदा रहे। सृष्टि का जो फल है, वह सृष्टि से भी कम उम्र रखता है। सृष्टि के लम्बे इतिहास में अनगिनत घटनाएं और क्रिया-प्रतिक्रियाएं क्या सिर्फ़ इसलिए हुई थीं कि आदमी को कुछ दिनों के लिए पैदा करके ख़त्म हो जाएं?

क्या आदमी की बस इतनी-सी हस्ती है। क्या उसका बस इतना-ही महत्व है?

पदार्थ को कूटिए, पीटिए, जलाइए, कुछ भी कीजिए, वह ख़त्म नहीं होता। वह हर स्थिति में अपने अस्तित्व को बनाए रखता है (चाहे वह ठोस अवस्था में रहे, द्रव्य रूप में रहे, या गैस के रूप में।) लेकिन आदमी, जो पदार्थ से उच्चतर प्राणी है, क्या उसके लिए अमरत्व नहीं। यह ज़िदगी जो सारे जगत का सार है, क्या वह इतनी निरर्थक है कि उसे इतनी आसानी से ख़त्म किया जा सकता है। क्या मानव जीवन की यही कुल कहानी है कि वह धरती के एक टुकड़े पर चंद दिनों के लिए पैदा हो और फिर वह सदा के लिए नष्ट हो कर रह जाए?

समूचा मानव-ज्ञान और उसकी उपलब्धियां, उसकी सफलताऐं उसके साथ हमेशा के लिए समाप्त हो जाएं, और यह दुनिया इस तरह उसके पीछे बाक़ी रह जाए जैसे उसके नज़दीक इंसान की कोई हैसियत ही न थी।

इस संबंध में दूसरी बात जो खुले तौर पर महसूस होती है, वह यह है कि अगर ज़िंदगी बस इस दुनिया की ज़िंदगी है, तो यह एक ऐसी ज़िंदगी है, जिसमें हमारी उमंगें और आशाएं पूरी नहीं हो सकतीं। आदमी हमेशा जीवित रहना चाहता है, किसी को भी मौत पसंद नहीं, लेकिन इस दुनिया में हर पैदा होने वाला जानता है कि वह अमर नहीं है।

आदमी ख़ुशी पाना चाहता है। हर आदमी की इच्छा है कि वह दुख-दर्द और हर तरह की तकलीफों के बिना अपना जीवन बिताए। क्या इस दुनिया में सही रूप में कोई भी आदमी ऐसी ज़िंदगी प्राप्त कर सकता है ?

सारे जगत में केवल इंसान है, जो कल (tomorrow) की कल्पना करता है। यह सिर्फ़ इंसान की विशेषता है, जो भविष्य के बारे में सोचता है और अपने भविष्य को उज्जवल बनाना चाहता है। मानव और अन्य प्राणियों के बीच इस अंतर से पता चलता है कि मानव को तमाम

दूसरी चीज़ों से ज़्यादा अवसर मिलना चाहिए।

जानवरों के लिए ज़िंदगी सिर्फ़ आज की ज़िंदगी है, वे ज़िंदगी का कोई कल नहीं रखते। क्या इसी तरह आदमी की ज़िंदगी का भी कोई कल नहीं है? ऐसा होना प्रकृति के विरुद्ध है।

आदमी में आने वाले कल की जो कल्पना पाई जाती है, उसका तक़ाज़ा है कि आदमी की ज़िंदगी उससे ज़्यादा हो, जितनी आज उसे हासिल है। इंसान कल चाहता है पर उसे सिर्फ़ आज दिया गया है।

इसी तरह जब हम सामाजिक जीवन को देखते हैं तो हमें ज़बरदस्त विरोधाभास (contradiction) मालूम होता है। हम देखते हैं कि एक आदमी दूसरे आदमी पर ज़ुल्म करता है और दोनों इस हाल में मर जाते हैं कि एक ज़ालिम होता है और दूसरा मज़लूम, एक अत्याचारी होता है और दूसरा अत्याचारग्रस्त। क्या ज़ालिम को उसके ज़ुल्म की सज़ा, मज़लूम को उसकी मज़लूमियत का बदला दिए बिना, दोनों के जीवन को मुकम्मल जीवन कहा जा सकता है ?

आज का आदमी सिर्फ़ अपनी राय और अपनी इच्छा पर चलना चाहता है, चाहे उसकी राय और इच्छा कितनी ही ग़लत क्यों न हो। हर आदमी पूरी ताक़त के साथ अपने आपको सही साबित कर रहा है। अखबारों में नेताओं और शासकों का बयान देखिए, हर एक पूरी ढिठाई के साथ अपने अत्याचार को न्याय, और अपने ग़लत काम को सही काम साबित करता हुआ दिखाई देगा। क्या कभी इस धोखे से पर्दा नहीं हटेगा?

यह बात साफ़ तौर पर ज़ाहिर करती है कि यह दुनिया अधूरी है। इसे सम्पूर्ण व समग्र बनाने के लिए ऐसी दुनिया चाहिए, जहां हर एक को उसका सही स्थान मिल सके।

हमारा स्वभाव और हमारी अनुभूति कुछ कामों को अच्छा और कुछ कामों को बुरा समझती है। हम कुछ बातों को चाहते हैं कि वह हों, और कुछ बातों के बारे में हमारी चाहत है कि वह न हों। इसके बावजूद हमारी ये उदत्त भावनाएं पूरी नहीं होतीं। और दुनिया में वह सब कुछ हो रहा है, जिसको आदमी की मूल प्रकृति बुरा समझती है।

आदमी के अंदर इन उदत्त भावनाओं की मौजूदगी का अर्थ यह है कि दुनिया सत्य पर कायम हुई है। यहां अन्याय के बजाय, न्याय की स्थापना होनी चाहिए। फिर क्या यह न्याय पूरा नहीं होगा। क्या यह सच्चाई कभी प्रकट नहीं होगी? जो चीज़ भौतिक दुनिया में पूरी हो रही है, क्या वह मानव-जीवन में पूरी नहीं होगी। यही वे सवाल हैं, जिनको मैंने अंत की खोज का नाम दिया है।

एक विवेकशील आदमी जब इन हालात को देखता है तो वह बेचैन हो उठता है। वह शिद्दत से महसूस करता है कि ज़िंदगी अगर यही है, जो इस समय दिखाई दे रही है, तो यह कितनी अजीब और अधूरी ज़िंदगी है। इस प्रश्न के बारे में आज लोगों का रुझान आम तौर पर यह है कि इस तरह के झंझट में पड़ना फ़ुज़ूल है। ये सब दार्शनिक प्रश्न हैं। ज़िदगी का जो क्षण तुम्हें मिला है, उसे आनन्दमय बनाने की कोशिश करो, यही यथार्थवाद है। भविष्य में क्या होगा, या जो कुछ हो रहा है, वह सही है या ग़लत, इसकी चिंता में पड़ने की ज़रूरत नहीं।

वास्तव में, जो लोग इस ढंग से सोचते हैं, सच्चाई यह है कि उन्होंने अभी इंसानियत के मर्म को नहीं पहचाना। वे मिथ्या को सत्य समझ लेना चाहते हैं। हालात उन्हें अनन्त जीवन का रहस्य जानने के लिए बुला रहे हैं, पर वे चंद दिनों के जीवन पर संतुष्ट हो गए हैं। आदमी के मनोविज्ञान और स्वभाव (nature) का तक़ाज़ा है कि अपनी उमंगों, हौसलों और आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए वह एक अनंत दुनिया की खोज करे। पर इंसान, रोशनी के बजाय उसके साये को काफ़ी समझ रहा है।

सृष्टि पुकार रही है कि यह दुनिया तुम्हारे लिए अधूरी है, तुम दूसरी संपूर्ण दुनिया की तलाश करो। पर हमारा फ़ैसला है कि हम इसी अधूरी दुनिया में अपने जीवन की इमारत खड़ी करेंगे, हमको संपूर्ण दुनिया की ज़रूरत नहीं।

हालात और परिस्थितियां साफ़ इशारा कर रही हैं कि ज़िंदगी का एक अन्त आना चाहिए। लेकिन इंसान सिर्फ़ आरंभ को लिए हुए है, उसने अन्त की तरफ़ से अपनी आंखें बंद कर ली हैं।

अगर सचमुच ज़िंदगी का कोई अंत है तो वह आकर रहेगा, और किसी का उसके प्रति अनजान बना रहना, उसके आने को रोक नहीं सकता। हां, वह उसके लिए नाकामी का फ़ैसला ज़रूर बन सकता है।

सच्चाई यह है कि मौजूदा ज़िंदगी को कुल ज़िंदगी समझना केवल आजको आनन्दमय बनाने की कोशिश को अपना लक्ष्य बना लेना सिर्फ़ एक विनाशक नादानी का सुबूत देना है, इसके सिवा और कुछ नहीं।

आदमी अगर अपने जीवन और सृष्टि पर थोड़ा-सा विचार करे तो इस दृष्टिकोण का आधार तुरंत ही ढह जाता है। ऐसा फ़ैसला वही कर सकता है, जो सच्चाई की तरफ़ से आंख बंद कर ले और एक बेसमझी-बूझी ज़िंदगी गुज़ारना शुरू कर दे।

ये हैं वह प्रश्न, जो सृष्टि को देखते ही शिद्दत के साथ हमारे ज़हन में उभरते हैं। इस सृष्टि का एक सृष्टा व निर्माता होना चाहिए, पर हमें उसके बारे में कुछ भी मालूम नहीं। इसका एक संचालक होना चाहिए, पर हम नहीं जानते कि वह कौन है। हम किसी के एहसानों और मेहरबानियों से ढके हुए हैं। हम एहसानमंदी व धन्यवाद की साक्षात प्रतिमा बनकर उस हस्ती को ढूंढ़ना चाहते हैं, जिसके सामने अपनी भक्ति और श्रद्धा के भाव प्रकट कर सकें, लेकिन ऐसी कोई हस्ती हमें दिखाई नहीं देती। हम इस दुनिया में बहुत छोटे और बेबस हैं। हमको एक ऐसी शरण चाहिए, जहां पहुंच कर हम अपने आपको सुरक्षित महसूस कर सकें। लेकिन ऐसी कोई शरण हमारी आंखों के सामने मौजूद नहीं है।

फिर सबसे बड़ा विरोधाभास (contradiction) वह है, जो भौतिक-जगत और मानव-जगत में पाया जाता है। भौतिक दुनिया पूरी तरह संपूर्ण है। उसमें कहीं कोई शून्यता दिखाई नहीं देती, पर आदमी की ज़िदगी में ज़बरदस्त शून्यता मौजूद है। जगत के सर्वश्रेष्ठ प्राणी (इंसान) की हालत सारे प्राणी-जगत में निम्नतर नज़र आती है।

आदमी की बेबसी

सत्य की खोज में जब हम अपनी अक़्ल और अपने तजुर्बे की तरफ़ देखते हैं तो पता चलता है कि इसका ठीक ठीक जवाब पाना हमारी अक़्ल और तजुर्बे के बस से बाहर है। इस संबंध में अब तक हमने जो राय क़ायम की है, वह किसी अटकल से ज़्यादा महत्त्व नहीं रखती।

जिस तरह हमारी नज़र का दायरा सीमित है। हम एक विशेष आकार से छोटी चीज़ को नहीं देख सकते, एक विशेष फ़ासले से आगे की चीज़ को देखना हमारे लिए मुमकिन नहीं। इसी तरह सृष्टि के बारे में हमारा ज्ञान भी एक महदूद दायरे तक सीमित है, जिसके आगे या पीछे की हमें कोई ख़बर नहीं। हमारा ज्ञान अधूरा है। हमारी देखने, सुनने, सूंघने, चखने ओर छूने की सामर्थ्य बहुत सीमित है। हमारी संवेदनशक्ति एक हद तक हमारा साथ देती है। हम हक़ीक़त को नहीं देख सकते।

पैग़म्बर की ज़रूरत

इस मौक़े पर एक व्यक्ति हमारे सामने आता है और वह कहता है कि जिस सच्चाई को तुम मालूम करना चाहते हो, उसका ज्ञान मुझे दिया गया है और वह यह है कि

‘‘इस जगत का एक ईश्वर है, जिसने सारी सृष्टि को बनाया है। वह अपनी असाधारण शक्तियों द्वारा इसकी व्यवस्था संभाले हुए है। जो चीज़ें तुम्हें हासिल हैं, वे सब तुम्हें उसी ने दी हैं। हर बात पर उसका बस है। तुम देख रहे हो कि भौतिक दुनिया में कोई विरोधाभास नहीं, वह ठीक-ठीक अपना काम कर रही है, जबकि इंसानी दुनिया अधूरी नज़र आती है। इसका कारण यह है कि आदमी को आज़ादी देकर उसे आज़माया जा रहा है। तुम्हारा मालिक यह चाहता है कि उसका क़ानून जो भौतिक जगत में प्रत्यक्ष रूप से लागू हो रहा है, उसको इंसान अपनी ज़िदगी में ख़ुद से लागू करे। यही वह हस्ती है जिसने सृष्टि का निर्माण किया है। वह उसकी देखभाल करने वाला है।

तुम्हारे धन्यवाद और कृतज्ञता का वही सच्चा अधिकारी है। वही है जो तुमको शरण दे सकता है। उसने तुम्हारे लिए एक अनंत-असीमित जीवन बनाया है, जो मरने के बाद आने वाली है, जहां तुम्हारी उमंगें और आशाएं पूरी (fulfill) हो सकेंगी, जहां सच और झूठ अलग-अलग कर दिया जाएगा, भलों को उनकी भलाई का, और बुरों को उनकी बुराई का बदला दिया जाएगा। उसने मेरे माध्यम से तुम्हारे पास अपनी किताब भेजी है, जिसका नाम क़ुरआन है। जो औरत और मर्द इस किताब को मानेगा, वह कामयाब होगा। और जो औरत और मर्द उसको नहीं मानेगा, वह नाकाम होगा।’’

यह मुहम्मद (Prophet Muhammad) की आवाज़ है। यह अवाज़ चौदह सौ वर्ष पहले अरब के रेगिस्तान से बुलंद हुई। वह आज भी हमको पुकार रही है। उसका संदेश है कि अगर सत्य को जानना चाहते हो तो मेरी आवाज़ पर कान लगाओ और मैं जो कुछ कहता हूं, उस पर ध्यान दो। क्या यह आवाज़ सचमुच सच्चाई की आवाज़ है। क्या हमें इस पर ईमान लाना चाहिए। अब सवाल यह है कि वह कौन-सी कसौटी है, जिससे इस संदेश के सही या ग़लत होने का फ़ैसला किया जाए?

पैग़म्बर की सच्चाई

1. पैग़म्बर के संदेश की पहली विशेषता यह है कि वह इंसान के मनोविज्ञान (psychology) से पूरी तरह मेल खाता है। इसका अर्थ यह है कि आदमी का स्वभाव (nature) इस व्याख्या की पुष्टि कर रहा है। इस व्याख्या की बुनियाद एक ख़ुदा के अस्तित्व पर रखी गई है, और एक ख़ुदा की चेतना आदमी के स्वभाव में शामिल है।

इस बात के दो निहायत मज़बूत आधार हैं। एक यह है कि मनुष्य के इतिहास के सभी ज्ञात युगों में इंसानों के बहुमत ने, ख़ुदा के अस्तित्व को माना है। इंसान पर कभी भी ऐसा कोई दौर नहीं गुज़रा, जब उसका बहुमत ख़ुदा की चेतना से ख़ाली रहा हो।

प्राचीनतम काल से लेकर आज तक, मनुष्य के इतिहास की सर्वसम्मत गवाही यही है कि ख़ुदा की चेतना मानव-प्रकृति की निहायत शक्तिशाली चेतना है। दूसरा आधार यह है कि आदमी जब कठिन घड़ी में होता है तो उसका दिल बरबस ख़ुदा को पुकार उठता है, जहां कोई सहारा दिखाई नहीं देता, वहाँ आदमी ख़ुदा का सहारा ढूंढ़ता है। पढ़ा-लिखा हो या अनपढ़, धार्मिक हो या अधार्मिक, खुले दिमाग़ वाला हो या तंग दिमाग़ वाला, जब भी उस पर कोई ऐसा समय आता है, जहां आदमी की ताक़त जवाब देती दिखाई पड़ती है, तो वह एक ऐसी हस्ती को पुकारता है, जो तमाम ताक़तों से बढ़ कर ताक़तवर, और तमाम ताक़तों का भंडार है।

इंसान अपने नाज़ुक क्षणों में ख़ुदा को याद करने पर मजबूर है। पैग़म्बर की आवाज़ की यह विशेषता है कि वह उन तमाम सवालों की एक संपूर्ण व्याख्या है, जो आदमी जानना चाहता है और जो सृष्टि को देखकर हमारे ज़हन में उभरते हैं।

सृष्टि के अध्ययन ने हमें इस नतीजे पर पहुंचाया था कि वह महज़ इत्तिफ़ाक से नहीं पैदा हो सकती, ज़रूर इसका कोई पैदा करने वाला (Creator) होना चाहिए। पैग़म्बर की व्याख्या में इस सवाल का जवाब मौजूद है।

हमको लग रहा था कि दुनिया महज़ एक भौतिक मशीन नहीं है। उसके पीछे कोई असाधारण ज़हन होना चाहिए, जो उसे चला रहा हो। पैग़म्बर की व्याख्या में इस सवाल का जवाब भी मौजूद है।

हम को उस कृपालू हस्ती की तलाश थी जो हमारा सहारा बन सके। इस व्याख्या में उसका जवाब भी मौजूद है।

हमें यह बात बहुत अजीब मालूम हो रही थी कि आदमी की जिंदगी इतनी छोटी क्यों है। हम आदमी को अमर देखना चाहते थे। हम अपने लिए एक ऐसे विस्तृत मैदान की तलाश में थे, जहां हमारी आशाएं और उमंगें पूरी हो सकें। इस व्याख्या में इसका जवाब भी मौजूद है।

फिर आदमी के हालात का यह तक़ाज़ा था कि सच का सच होना और झूठ का झूठ होना स्पष्ट हो और अच्छे और बुरे अलग-अलग कर दिए जाएं। हर आदमी को उसका सही स्थान दिया जाए। इस सवाल का जवाब भी पैग़म्बर की व्याख्या में मौज़ूद है।

तात्पर्य यह है कि पैग़म्बर की व्याख्या में ज़िंदगी के सारे सवालों का पूरा-पूरा जवाब मौजूद है और यह इतना बेहतर जवाब है कि इससे बेहतर जवाब की हम कल्पना भी नहीं कर सकते। इस से वे सारे सवाल हल हो जाते हैं जो जगत के बारे में हमारे ज़हन में पैदा हुए थे।

2. पैग़म्बर के संदेश की दूसरी बड़ी विशेषता यह है कि ज़िंदगी के अंजाम के बारे में वह जो दृष्टिकोण पेश करता है, उस का एक व्यवहारिक नमूना वह ख़ुद अपनी जिंदगी में हमें दिखा देता है। वह कहता है कि दुनिया इसी तरह ज़ालिम और मज़लूम, अत्याचारी और अत्याचारग्रस्त को लेकर ख़त्म नहीं हो जाएगी, बल्कि उसके अन्त के बाद सृष्टि का मालिक प्रकट होगा और सच्चों और झूठों को एक-दूसरे से अलग कर देगा।

पैग़म्बर यह बात सिर्फ़ कह कर ख़त्म नहीं कर देता, बल्कि इसी के साथ उसका दावा यह भी है कि मैं जो कुछ कहता हूं, उसके सही होने का सुबूत यह है कि उस का एक नमूना ख़ुदा मेरे माध्यम से इसी दुनिया में तुमको दिखाएगा। मेरे माध्यम से वह सच को प्रतिष्ठित और झूठ को पराजित करेगा। अपने आज्ञाकारियों को इज़्ज़त देगा और अवज्ञाकारियों को बेइज़्जत करके उन्हें प्रकोप में डालेगा। यह घटना घट कर रहेगी, चाहे दुनिया के लोग उसका कितना ही विरोध करें और अपनी सारी ताक़त उसके मिटाने पर लगा दें। सुनने वाले उसका मज़ाक़ उड़ाते हैं, पर वह निहायत गंभीरता से अपना काम करता चला जाता है। देश का बहुमत उसकी हत्या करने का फ़ैसला करता है, उसको वतन छोड़ने पर मजबूर कर देता है, उसको मिटाने के लिए अपनी समूची शक्ति लगा देता है, पर ये सब कुछ उसके सामने बेअसर साबित होता है।

बहुत थोड़े लोग पैग़म्बर का साथ देते हैं। एक तरफ़ उसके मुट्ठी भर साथी होते हैं और दूसरी तरफ़ जबरदस्त बहुमत! एक तरफ़ पूरा साधन होता है और दूसरी तरफ़ सिर्फ़ साधनहीनता। एक तरफ़ मुल्क और क़ौम का समर्थन होता है तो दूसरी तरफ़ अपनों और परायों का एकजुट विरोध। ऐसे कठिन हालात में उसके साथी तक घबरा उठते हैं, पर वह हर बार उनसे यही कहता है कि इंतिज़ार करो, ख़ुदा का फ़ैसला आकर रहेगा, उसको कोई ताक़त रोक नहीं सकती।

चौथाई सदी भी नहीं बीत पाती कि पैग़म्बर की चुनौती पूरी हो जाती है और इतिहास में अपने ढंग की अकेली घटना घटती है। एक शख़्स ने जिन दावों के साथ अपना काम शुरू किया था, ठीक उसी रूप में उसका दावा पूरा हुआ और उसके विरोधी उसमें कोई कमी-बेशी न कर सके। झूठ और सच अलग-अलग हो गया।

3. पैग़म्बर के दावे के सच होने का तीसरा सुबूत वह कलाम है, जिसे वह कलामे-इलाही (ईश-वाणी) कह कर पेश करता है। इस कलाम को आए कई सदियां बीत चुकी हैं, पर उसकी महानता और उसकी सच्चाई के बारे में उसके बयान का एक शब्द भी ग़लत साबित न हो सका, जबकि कोई भी मानवीय पुस्तक ऐसी नहीं है, जो दोष और विरोधाभास से भरी हुई न हो।

दूसरे शब्दों में, क़ुरआन ख़ुद इस बात की दलील है कि वह ख़ुदा की किताब है, वह एक ईश्वरीय ग्रंथ है। उसके बहुत से पहलू हैं, पर मैं यहां उसके सिर्फ़ तीन पहलूओं का उल्लेख करूंगा। एक, उसकी असाधारण शैली। दूसरे, उसके अर्थ में विरोधाभास (contradiction) का न होना। और तीसरे, उसकी शाश्वतता!

क़ुरआनः अपनी दलील आप

1. क़ुरआन एक ग़ैरमामूली (असाधारण) कलाम है। उसको पढ़ते हुए साफ़ मालूम होता है कि उसका लेखक एक ऐसे ऊंचे स्थान से बोल रहा है, जो किसी भी आदमी को हासिल नहीं। उसकी अभिव्यक्ति की गरिमा, उसकी बेपनाह रवानी (प्रवाहशीलता) उसका बेलाग बयान आश्चर्यजनक हद तक मानवीय वाणी से इस क़दर भिन्न है कि साफ़ तौर पर मालूम होता है कि यह सृष्टि के मालिक की आवाज़ है, वह किसी इंसान की आवाज़ नहीं। उसकी विश्वास भरी और गरिमापूर्ण वाणी ख़ुद बोल रही है कि यह ईश्वर की किताब है, जिसमें ईश्वर अपने बंदों और अपनी बंदियों को संबोधित कर रहा है। यहां मैं नमूने के तौर पर क़ुरआन के एक अध्याय (नं. 82) का अनुवाद पेश करूंगा-

‘‘जब आसमान फट जाएगा, जब सितारे बिखर जाएंगे, जब दरिया उबल पड़ेंगे, जब क़ब्रें उलट दी जाएंगी, उस दिन हर शख़्स जान लेगा जो उसने आगे भेजा और जो उसने पीछे छोड़ा। ऐ इंसान, तुझको अपने मालिक के बारे में किस चीज़ ने धोखे में डाल रखा है, जिसने तुझे बनाया, तेरी सूरत ठीक-ठीक और संतुलित बनाई। उसने जिस सूरत में चाहा, वैसा तुमको बनादिया। नहीं, बल्कि तुम फ़ैसले के दिन का इंकार करते हो। हालांकि तुम्हारे ऊपर नज़र रखने वाले (फ़रिश्ते) तैनात हैं, सही-सही लिखने वाले। वे जानते हैं, जो तुम करते हो। यक़ीनन अच्छे लोगों के लिए नेमतें (वरदान) हैं और यक़ीनन बुरे लोगों के लिए जहन्नम है। वे फ़ैंसले के दिन उसमें डाले जाएंगे, और वे

हरगिज़ उससे भाग नहीं सकते। और क्या तुम जानते हो कि फ़ैसले का दिन क्या है। फिर क्या तुम जानते हो कि फ़ैसले का दिन क्या है। वह एक ऐसा दिन है जब कोई किसी के काम न आएगा। उस दिन सिर्फ़ ख़ुदा का हुक्म चलेगा।’’

किस क़दर विश्वास से भरा है यह कलाम, जिसमें ज़िंदगी का आरंभ और अन्त सब कुछ बयान कर दिया गया है। कोई भी मानवीय पुस्तक, जो जीवन और सृष्टि के बारे में लिखी गई हो, इस विश्वास और यक़ीन की मिसाल पेश नहीं कर सकती। सैकड़ों वर्षों से आदमी सृष्टि की हक़ीक़त पर विचार कर रहा है, बड़े-बड़े दार्शनिक और वैज्ञानिक पैदा हुए, पर कोई इतने विश्वास के साथ बोलने का साहस न कर सका। विज्ञान आज भी यह मानता है कि वह किसी निश्चित ज्ञान से बहुत दूर है, जबकि क़ुरआन इतने विश्वास के साथ बात कहता है जैसे वह सच्चाई से आख़िरी हद तक वाक़िफ़ है।

2. क़ुरआन के ईश्वरीय ग्रंथ होने की दूसरी दलील यह है कि उसने अलौकिक और प्राकृतिक विषय से लेकर, सांस्कृतिक समस्याओं तक, सारे महत्त्वपूर्ण विषय पर बातचीत की है, लेकिन कहीं भी उसके बयान में विरोधाभास (contradiction) नहीं पाया जाता। इस वाणी को आए हुए डेढ़ हज़ार साल बीत चुके हैं। इस दौरान बहुत सी नई-नई बातें आदमी को मालूम हुई हैं, पर क़ुरआन की बात में अब भी कोई विरोधाभास प्रकट नहीं हो सका, जबकि इंसानों में से किसी एक भी दार्शनिक का नाम इस हैसियत से नहीं लिया जा सकता कि उसकी बात विरोधाभास से ख़ाली हो। इस बीच हज़ारों दार्शनिक और चिंतक पैदा हुए, जिन्होंने अपनी बुद्धि से ज़िंदगी और सृष्टि की व्याख्या करने की कोशिश की, पर बहुत जल्द उनकी बातों में विरोधाभास प्रकट होने लगा और वक़्त ने उन्हें रद्द कर दिया।

क़ुरआन की शिक्षाओं को अगर आप मानवीय दर्शनों की तुलना में रखकर देखें तो आप उसमें इस तरह की बहुत-सी मिसालें पाएंगे।

किसी वाणी का विरोधाभास से ख़ाली होना इस बात का खुला हुआ सुबूत है कि वह पूरी तरह सच्चाई और वास्तविकता (reality) के अनुकूल है। जो आदमी सच्चाइयों का ज्ञान न रखता हो या सिर्फ़ आंशिक ज्ञान उसे हासिल हो तो वह जब भी सच्चाई को बयान करेगा, निश्चय ही वह विरोधाभास का शिकार हो जाएगा। वह एक पहलू की व्याख्या करते समय दूसरे पहलू का ख़्याल नहीं रख सकेगा। वह एक रुख़ को खोलेगा तो दूसरे रुख़ को बंद कर देगा। ज़िंदगी और सृष्टि की व्याख्या का सवाल एक शाश्वत और सर्वव्यापक सवाल है। उसके जवाब के लिए सारी सच्चाइयों का ज्ञान होना ज़रूरी है। और चूंकि आदमी अपनी सीमित क्षमताओं द्वारा सारी सच्चाइयों को नहीं जान सकता, इसलिए वह सारे पहलुओं का पूरा ध्यान नहीं रख सकता। यही कारण है कि आदमी के बनाए हुए दर्शन में विरोधाभास का होना निश्चित है। क़ुरआन की यह विशेषता है कि वह इस तरह के विरोधाभास से रहित है। यह इस बात की दलील है कि वह सच्चाई की सही-सही व्याख्या कर रहा है।

3. क़ुरआन की तीसरी विशेषता यह है कि वह लगभग डेढ़ हज़ार वर्ष से धरती पर मौजूद है। इस दौरान कितनी क्रांतियां हुई हैं, इतिहास में कितनी उलट-पलट हुई है, कितने युग बदले हैं, वक़्त ने कितनी करवटें ली हैं, लेकिन आज तक क़ुरआन की कोई बात ग़लत साबित नहीं हुई। वह हर युग की बौद्धिक संभावनाओं और सांस्कृतिक व सामाजिक आवश्यकताओं का निरंतर साथ देता चला जा रहा है, उसकी शिक्षाओं की प्रासांगिकता और शाश्वतता कहीं भी ख़त्म नहीं होती, बल्कि वह हर युग की समस्याओं पर हावी होती चली जा रही है। यह क़ुरआन की एक ऐसी विशेषता है जो किसी भी मानवीय किताब में नहीं पाई जाती। मनुष्य का बनाया हुआ हर दर्शन चंद ही दिनों बाद अपनी ग़लती ज़ाहिर कर देता है। सदियों पर सदियां गुज़रती जा रही हैं, पर इस किताब की सच्चाई और प्रमाणिकता में कोई फर्क़ नहीं आया। वह पहले जिस तरह सत्य था, आज भी वह उसी तरह सत्य है। क़ुरआन की यह विशेषता ज़ाहिर करती है कि वह एक ऐसे ज़हन से निकला हुआ कलाम है, जिसका ज्ञान अतीत से भविष्य तक फैला हुआ है। कुरआन की शाश्वतता उसके ईश्वरीय होने का खुला हुआ सुबूत है।

आख़िरी बात

हमारे अध्ययन ने अब हमारे लिए सत्य के दरवाज़े खोल दिए हैं। हमने अपनी यात्रा इस प्रश्न से शुरू की थी कि ‘‘हम क्या हैं और यह जगत क्या है?’’ इसका उत्तर बहुत से लोगों ने अपने ज़हन से देने की कोशिश की। पर हमने देखा कि ये उत्तर सच्चाई को प्रतिबिम्बित नहीं करते।

फिर हमारे कानों में अरब से निकली हुई एक आवाज़ आई, हमने उस पर ध्यान दिया, जगत के फ्रेम में उतर कर हमने उसको पहचानने की कोशिश की। हमने देखा कि सृष्टि, इतिहास और मनुष्य का मनोविज्ञान एकमत होकर इसकी पुष्टि कर रहे हैं। हमारा पूरा ज्ञान और हमारी तमाम उदात्त भावनाएं इसके पक्ष में हैं। जिस सच्चाई की हमें तलाश थी उसको हमने पा लिया। अब हमें यह फ़ैसला करना है कि हम उसके साथ कैसा बर्ताव करते हैं, हम उसको गंभीरता से लेते हैं, या नहीं। (1958).

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