Thursday, August 25, 2011

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Tuesday, August 23, 2011

इंसानी चरित्र पर रमज़ान का प्रभाव

रमज़ान का महीना चार गुणों से युक्त होता है।
1. सिफ़त ए रमज़ान
2. सिफ़त ए मवासात यानि हमदर्दी व ग़मगुसारी का गुण
3. सिफ़त ए सब्र
4. सिफ़त ए वुसअत ए रिज़्क, रोजी में ख़ैरो बरकत
ये तमाम गुनाहों को जला देता है और नेकियों से भर देता है। जिस तरह सोना जलने से कुन्दन बन कर निखर जाता है और मैल कुचैल से साफ़ शफ़्फ़ाफ़ हो जाता है, उसी तरह रमज़ानुल मुबारक मुसलमानों के तमाम गुनाहों को धो डालता है। मवासात यानि हमदर्दी व ग़मगुसारी का सबक़ भी देता है। भाईचारे और बराबरी की भावना, एक दूसरे के दुख दर्द में शरीक होना और एक दूसरे की तकलीफ़ों में साथ देना भी सिखाता है।
भूखा रहकर दूसरों की भूख प्यास की तड़प का अहसास कराता है। फिर वह तंगदस्त और मुफ़लिसी पर ग़ौरो फ़िक्र करने पर मजबूर होता है और अपना मदद का हाथ ग़रीबों, मिस्कीनों, फ़क़ीरों और विधवाओं की तरफ़ बढ़ाता है। यह रमज़ान की ही बरकत है कि ईद के दिन अमीर व ग़रीब उम्दा और शानदार लिबास पहनकर एक ही सफ़ में खड़े हुए नज़र आते हैं। ग़मख्वारी न करने की वजह से इंसान को संगदिल कहा जाता है और उनका समाज में न इज़्ज़त का मक़ाम होता है , न वक़ार और न ही दबदबा। दर्दमंदी , शफ़क्क़त और बोझ हल्का करने से दुनिया की बड़ाईयों के अलावा आखि़रत (परलोक) की नेमतों से भी मालामाल होता है।
क़ुरआन और हदीस में नफ़्सानी ख्वाहिश की पूर्ति को इंसान की तमाम ख़ताओं और मुसीबतों की जड़ क़रार दिया गया है। रसूले अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम फ़रमाते हैं -‘नफ़्सानी ख्वाहिशात को ‘हवा‘ इसलिए कहा गया है क्योंकि वह अपनी पैरवी करने वाले को नीचता की ओर ले जाती है।‘
लिहाज़ा पस्ती से बचने के लिए नफ़्सानी ख्वाहिशात की मुख़ालिफ़त इंतिहाई ज़रूरी है। हालांकि नफ़्स की ख्वाहिशात यानि मन की इच्छाओं की मुख़ालिफ़त करना एक इंतिहाई मुश्किल और मेहनत तलब काम है लेकिन मुमकिन है। इस रास्ते में इंसान को ख़ुदा से मदद मांगनी चाहिए। नफ़्स के खि़लाफ़ जिहाद का बेहतरीन मौक़ा माहे रमज़ान है क्योंकि इस महीने में शैतान क़ैद कर दिए जाते हैं।
पैग़ंबर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम फ़रमाते हैं -‘शैतान इस महीने में क़ैद कर दिए जाते हैं। अपने नफ़्स पर क़ाबू हासिल करने में रमज़ान से बेहतर कोई और महीना नहीं है।
रमज़ान दरअस्ल नफ़्स पर क़ाबू हासिल करने का ज़रिया है लेकिन हमारे यहां इसे सहरी और इफ़्तार के वक्त नफ़्स को ख़ूब लज़्ज़त मुहैया कराने का महीना बना लिया गया है। हम सिर्फ़ यही समझते हैं कि सहरी से लेकर इफ़्तार तक न खाकर हमने रमज़ान के महीने पर बहुत बड़ा अहसान कर दिया है और फिर भूख से पैदा होने वाली वो सारी कमी इफ़्तार और सहरी के वक्त पूरी कर लेते हैं। फ़िज़ूल ख़र्ची की हद तो यह है कि इस महीने वो खाने भी बनाए जाते हैं जिन्हें बाज़ दफ़ा पूरे साल में एक दफ़ा भी नहीं बनाया जाता। इस तरह घरों पर बिला वजह फ़िज़ूलख़र्ची का बोझ बढ़ता है। जो पैसे ग़रीबों, मिस्कीनों, विधवाओं और ज़रूरतमंदों की मुहताजगी दूर करने में ख़र्च होने चाहिए थे वो सिर्फ़ दिखावा की नज़्र हो जाते हैं। सादा सहरी और इफ़्तार को तो अपनी इज़्ज़त और वक़ार के बिल्कुल खि़लाफ़ समझना आम बात है। सहरी ताक़तवर ग़िज़ा से इस तरह की जाती है कि शाम तक भूख न लगे।
इस तरह रोज़े का मक़सद है कि दूसरों के दुख दर्द और तकलीफ़ को महसूस करना, यह मक़सद ख़त्म हो जाता है।
क्या हम कभी ग़रीबों की इफ़्तार के वक्त इस तरह की फ़िज़ूलख़र्ची से काम लेते हैं ?
या कभी किसी ग़रीब की इफ़्तार के वक्त क़िस्म क़िस्म के पकवान तैयार करवाते हैं ?
या दस्तरख्वान को उनके लिए फलों से इस तरह सजाते हैं ?
क्या हमने कभी इस पर ग़ौर किया है कि यह ग़रीब भी अल्लाह का इतना ही प्यारा बंदा है जितने कि हम ?
क्या कभी किसी ग़रीब को सिर्फ़ यह सोच कर इफ़्तार कराया कि यह अल्लाह का बंदा भी इतनी ही इज़्ज़त का हक़दार है जितने कि हमारे दोस्त और रिश्तेदार ?
इसलिए हम पर पूरे रमज़ानुल मुबारक के रोज़े रखने के बावजूद उसकी कोई ख़ासियत पैदा नहीं होती और रमज़ान ख़त्म होते ही हम वो तमाम ख़ुराफ़ात करने लगते हैं, जिन्हें मना किया गया है।
आज हमारी हालत दीगर क़ौमों से बदतर है और हम हरेक विभाग में उनके मुक़ाबले पाताल में पड़े हैं। आदत व अख़लाक़ व किरदार के मामले में हम कहीं नहीं टिकते।
क्या रमज़ान की चार सिफ़तों में से एक भी सिफ़त है ?
हमें दिल की गहराईयों से इसका जायज़ा लेना चाहिए। सिर्फ़ रमज़ान के रोज़े रखने और तमाम ज़िंदगी ठीक उसके खि़लाफ़ काम करने से हमें कुछ हासिल नहीं होगा।
दरअसल रमज़ान हमारी ज़िंदगी की हर साल सर्विस करता है ताकि अगले साल तक हम इन सिफ़तों (गुणों) की पाबंदी दम ख़म से कर सकें और अपनी ज़िंदगी के किसी लम्हे में भी इस्लाम के सुनहरे उसूलों को न छोड़ें।
आईये संकल्प लें कि हम रमज़ान के हक़ीक़ी मायनों को अमली जामा पहनाएंगे, हर उस चीज़ से गुरेज़ करेंगे जो हमें इस्लाम मना करता है और ज़िंदगी के हर मामले में इस्लामी उसूल और क़ायदे को तरजीह देंगे ताकि हम अपने अहले वतन के लिए एक नमूना ए अमल बनें। ठीक इसी तरह जिस तरह हमारे बुज़ुर्ग हुआ करते थे ताकि आज भी कोई ग़ैर मुस्लिम कह सके कि ‘यह मुसलमान का बच्चा है, झूठ नहीं बोलेगा, इंसाफ़ से काम लेगा।‘
लेखक - आबिद अनवर, राष्ट्रीय सहारा के परिशिष्ट उमंग से उर्दू से हिन्दी अनुवाद, दिनांक 21 अगस्त 2011