Wednesday, July 31, 2013

शबे क़द्र: आत्म-सुधार के ज़रिये तक़दीर बदलने की रात shabe qadr

रमज़ान महीने में एक रात ऐसी भी आती है जो हज़ार महीने की रात से बेहतर है जिसे शबे क़द्र कहा जाता है। शबे क़द्र का अर्थ होता है " सर्वश्रेष्ठ रात " ऊंचे स्थान वाली रात " लोगों के नसीब लिखी जानी वाली रात, 
शबे क़द्र बहुत ही महत्वपूर्ण रात है जिस के एक रात की इबादत हज़ार महीनों की इबादतों से बेहतर और अच्छा है। इसी लिए इस रात की फज़ीलत कुरआन मजीद और प्रिय रसूल मोहम्मद( सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की हदीसों से प्रमाणित है। 
निम्नलिखित महत्वपूर्ण वाक्यों से क़द्र वाली रात की अहमियत मालूम होती है।
(1) इस पवित्र रात में अल्लाह तआला ने कुरआन करीम को लोह़ महफूज़ से आसमाने दुनिया पर उतारा फिर 23 वर्ष की अविधि में अवयशक्ता के अनुसार मोहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) पर उतारा गया। जैसा कि अल्लाह तआला का इरशाद है।
" हमने इस (कुरआन) को कद्र वाली रात में अवतरित किया है।.. " (सुराः कद्र) 
(2) यह रात अल्लाह तआला के निकट बहुत उच्च स्थान रखती है। 
इसी लिए अल्लाह तआला ने प्रश्न के तरीके से इस रात की महत्वपूर्णता बयान फरमाया है और फिर अल्लाह तआला स्वयं ही इस रात की फज़ीलत को बयान फरमाया कि यह एक रात हज़ार महीनों की रात से उत्तम है। " और तुम किया जानो कि कद्र की रात क्या है ? क़द्र की रात हज़ार महीनों की रात से ज़्यादा उत्तम है।" (सुराः कद्र) 
(3) इस रात में अल्लाह तआला के आदेश से अनगिनत फरिश्ते (देवता) और जिबरील आकाश से उतरते है। अल्लाह तआला की रहमतें, अल्लाह की क्षमा ले कर उतरते हैं, इस से भी इस रात की महत्वपूर्णता मालूम होती है। जैसा कि अल्लाह तआला का इरशाद है। " फ़रिश्ते और रूह उस में अपने रब की अनुज्ञा से हर आदेश लेकर उतरते हैं। " (सुराः कद्र)
(4) यह रात बहुत सलामती वाली है। इस रात में अल्लाह की इबादत में ग्रस्त व्यक्ति परेशानियों, ईश्वरीय संकट से सुरक्षित रहते हैं। इस रात की महत्वपूर्ण, विशेष्ता के बारे में अल्लह तआला ने कुरआन करीम में बयान फरमाया है। " यह रात पूरी की पूरी सलामती है उषाकाल के उदय होने तक। " (सुराः कद्र) 
(5) यह रात बहुत ही पवित्र तथा बरकत वाली है, इस लिए इस रात में अल्लाह की इबादत की जाए, ज़्यादा से ज़्यादा अल्लाह से दुआ की जाए, अल्लाह का फरमान है। " हम्ने इस (कुरआन) को बरकत वाली रात में अवतरित किया है।...... " (सुराः अद् दुखान)
(6) इस रात में अल्लाह तआला के आदेश से लोगों के नसीबों (भाग्य) को एक वर्ष के लिए दोबारा लिखा जाता है। इस वर्ष किन लोगों को अल्लाह तआला की रहमतें मिलेंगी? यह वर्ष अल्लाह की क्षमा का लाभ कौन लोग उठाएंगे? इस वर्ष कौन लोग अभागी होंगे? किस को इस वर्ष संतान जन्म लेगा और किस की मृत्यु होगी? तो जो व्यक्ति इस रात को इबादतों में बिताएगा, अल्लाह से दुआ और प्राथनाओं में गुज़ारेगा, बेशक उस के लिए यह रात बहुत महत्वपूर्ण होगी। जैसा कि अल्लाह तआला का इरशाद है। " यह वह रात है जिस में हर मामले का तत्तवदर्शितायुक्त निर्णय हमारे आदेश से प्रचलित किया जाता है। " (सुराः अद् दुखानः5 )
(7) यह रात पापों , गुनाहों, गलतियों से मुक्ति और छुटकारे की रात है। 
मानव अपनी अप्राधों से मुक्ति के लिए अल्लाह से माफी मांगे, अल्लाह बहुत ज़्यादा माफ करने वाला, क्षमा करने वाला है। खास कर इस रात में लम्बी लम्बी नमाज़े पढ़ा जाए, अधिक से अधिक अल्लाह से अपने पापों, गलतियों पर माफी मांगा जाए, अल्लाह तआला बहुत माफ करने वाला, क्षमा करने वाला है। जैसा कि मोहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का कथन है। " जो व्यक्ति शबे क़द्र में अल्लाह पर विश्वास तथा पुण्य की आशा करते हुए रातों को तरावीह (क़ियाम करेगा) पढ़ेगा, उसके पिछ्ले सम्पूर्ण पाप क्षमा कर दिये जाएंगे" ( बुखारी तथा मुस्लिम)
यह महान क़द्र की रात कौन सी है ? 
यह एक ईश्वरीय प्रदान रात है जिस की महानता के बारे में कुछ बातें बयान की जा चुकी हैं। इसी शबे क़द्र को तलाशने का आदेश प्रिय रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने अपने कथन से दिया है। " जैसा कि आइशा (रज़ी अल्लाहु अन्हा) वर्णन करती हैं कि " रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फरमाया " कद्र वाली रात को रमज़ान महीने के अन्तिम दस ताक़ (odd) रातों में तलाशों " ( बुखारी तथा मुस्लिम) 
एक हदीस में रमज़ान करीम की चौबीसवीं रात में शबे क़द्र को तलाशने का आज्ञा दिया गया है। और प्रिय रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने इस मुबारक रात की कुछ निशानियाँ बताया है। जिस के अनुसार वह रात एकीस रमज़ान की रात थीं जैसा कि प्रिय रसूल के साथी अबू सईद अल खुद्री (रज़ी अल्लाहु अन्हु) वर्णन करते हैं। प्रिय रसूल के दुसरे साथी अब्दुल्लाह बिन अनीस (रज़ी अल्लाहु अन्हु) की रिवायत से पता चलता कि वह रात तेईस रमज़ान की रात थीं और अब्दुल्लाह बिन अब्बास (रज़ी अल्लाहु अन्हुमा) तथा उबइ बिन कअब (रज़ी अल्लाहु अन्हु) की रिवायत से पता चलता कि वह रात सत्ताईस रमज़ान की रात थीं और उबइ बिन कअब (रज़ी अल्लाहु अन्हु) तो कसम खाया करते थे कि शबे क़द्र सत्ताईस रमज़ान की रात है, तो उन के शागिर्द ने प्रश्न किया कि किस कारण इसी रात को कहते हैं? तो उन्हों ने उत्तर दिया, निशानियों के कारण, प्रिय रसूल मोहम्मद (रज़ी अल्लाहु अन्हु) ने भी शबे क़द्र को अन्तिम दस ताक वाली(21,23,25,27,29) रातों में तलाश ने का आदेश दिया है। शबे क़द्र के बारे में जितनी भी हदीस की रिवायतें आइ हैं। सब सही बुखारी, सही मुस्लिम और सही सनद से वारिद हैं। इस लिए हदीस के विद्ववानों ने कहा है कि सब हदीसों को पढ़ने के बाद मालूम होता है कि शबे क़द्र हर वर्ष विभिन्न रातों में आती हैं। कभी 21 रमज़ान की रात क़द्र वाली रात होती, तो कभी 23 रमज़ान की रात क़द्र वाली रात होती, तो कभी 25 रमज़ान की रात क़द्र वाली रात होती, तो कभी 27 रमज़ान की रात क़द्र वाली रात होती, तो कभी 29 रमज़ान की रात क़द्र वाली रात होती और यही बात सही मालूम होता है। इस लिए हम इन पाँच बेजोड़ वाली रातों में शबे क़द्र को तलाशें और बेशुमार अज्रो सवाब के ह़क़्दार बन जाए। 
शबे क़द्र की निशानीः 
प्रिय रसूल मोहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने इस रात की कुछ निशानी बयान फरमाया है जिस के माध्यम से इस महत्वपूर्ण रात को पहचाना जा सकता है। 
(1) यह रात बहूत रोशनी वाली होगी, आकाश प्रकाशित होगा , इस रात में न तो बहुत गरमी होगी और न ही सर्दी होगी बल्कि वातावरण अच्छा होगा, उचित होगा। जैसा कि मोहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने निशानी बताया है जिसे सहाबी वासिला बिन अस्क़अ वर्णन करते है कि रसूल ने फरमाया " शबे क़द्र रोशनी वाली रात होती है, न ज़्यादा गर्मी और न ज़्यादा ठंढ़ी और वातावरण संतुलित होता है और सितारे को शैतान के पीछे नही भेजा जाता।" ( तब्रानी )
(2) यह रात बहुत संतुलित वाली रात होगी। वातावरण बहुत अच्छा होगा, न ही गर्मी और न ही ठंडी होगी। हदीस रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) इसी बात को स्पष्ट करती है " शबे क़द्र वातावरण संतुलित रात होती है, न ज़्यादा गर्मी और न ज़्यादा ठंढ़ी और उस रात के सुबह का सुर्य जब निकलता है तो लालपन धिमा होता है।" ( सही- इब्नि खुज़ेमा तथा मुस्नद त़यालसी )
(3) शबे क़द्र के सुबह का सुर्य जब निकलता है तो रोशनी धिमी होती है, सुर्य के रोशनी में किरण न होता है ।जैसा कि उबइ बिन कअब वर्णन करते हैं कि रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फरमाया " उस रात के सुबह का सुर्य जब निकलता है तो रोशनी में (आम दिनों की तरह) किरण न होती है।" ( सही मुस्लिम )
हक़ीक़त तो यह है कि इन्सान इन रातों की निशानियों का परिचय कर पाए या न कर पाए बस वह अल्लाह की इबादतों, ज़िक्रो- अज़्कार, दुआ और कुरआन की तिलावत,कुरआन पर गम्भीरता से विचार किरे । इख्लास के साथ, केवल अल्लाह को प्रसन्न करने के लिए अच्छे तरीक़े से अल्लाह की इबादत करे, प्रिय रसूल मोहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की इताअत करे, और अपनी क्षमता के अनुसार अल्लाह की खूब इबादत करे और शबे क़द्र में यह दुआ अधिक से अधिक करे, अधिक से अधिक अल्लाह से अपने पापों , गलतियों पर माफी मांगे
जैसा कि आइशा (रज़ी अल्लाहु अन्हा) वर्णन करती हैं कि, मैं ने रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से प्रश्न क्या कि यदि मैं क़द्र की रात को पालूँ तो क्या दुआ करू तो आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फरमाया " अल्लाहुम्मा इन्नक अफुव्वुन करीमुन, तू हिब्बुल-अफ्व,फअफु अन्नी"
अर्थात: ऐ अल्लाह ! निःसन्देह तू माफ करने वाला है, माफ करने को पसन्द फरमाता, तो मेरे गुनाहों को माफ कर दे।" 
अल्लाह हमें और आप को इस महिने में ज्यादा से ज़्यादा भलाइ के काम, लोगों के कल्याण के काम, अल्लाह की पुजा तथा अराधना की शक्ति प्रदान करे और हमारे गुनाहों, पापों, गलतियों को अपने दया तथा कृपा से क्षमा करे। आमीन............
साभार 

Friday, July 26, 2013

रोज़ा क्या और क्यों? Fasting in Islam

इस सम्पूर्ण ब्रह्मांड और इंसान का अल्लाह (ईश्वर) एक है। ईश्वर ने इंसान को बनाया और उसकी सभी आवश्यकताओं को पूरा करने का प्रबंध किया। इंसान को इस ग्रह पर जीवित रहने के लिए लाइफ सपोर्ट सिस्टम दिया। इंसान को उसके मूल प्रश्नों का उत्तर भी बताया।
इंसान को क्या कोई बनाने वाला है? अगर है, तो वह क्या चाहता है? इंसान को पैदा क्यों किया गया? इंसान के जीवन का उद्देश्य क्या है? अगर है, तो उस उद्देश्य को पाने का तरीक़ा क्या है? इंसान को आज़ाद पैदा किया गया या मजबूर? अच्छी ज़िन्दगी कैसे गुज़ारी जा सकती है? मरने के बाद क्या होगा? इत्यादि। यह इंसान के बुनियादी सवाल हैं, जिनका जानना उसके लिए बहुत ज़रुरी है।
इंसानों में से ईश्वर ने कुछ इंसानों को चुना, जो पैग़म्बर (ईशदूत) कहलाए। उन्हें अपना सन्देश भेजा, जो सभी इंसानों के लिए मार्गदर्शन है। पहले इंसान व पैग़म्बर हज़रत आदम (अलैहि॰) से लेकर आख़िरी पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) तक अनेक ईशदूत आए, जो कि हर क़ौम में भेजे गए। सभी ईशदूतों ने लोगों को उन्हीं की भाषा में ईश्वर का सन्देश दिया। 
प्रश्न यह है कि बार-बार अनेक पैग़म्बर क्यों भेजे गए? वास्तव में प्राचीनकाल में परिवहन एवं संचार के साधनों की कमी के कारण, एक जगह की ख़बर दूसरी जगह पहुँचना मुश्किल थी। दूसरे यह कि लोग ईश्वर के सन्देश को बदल देते थे, तब ज़रुरत होती थी कि दोबारा ईश्वर का सन्देश आए। 
सभी पैग़म्बरों ने एक ही सन्देश दिया कि ईश्वर एक है, दुनिया इम्तिहान की जगह है और मरने के बाद जिन्दगी है। पहले के सभी पैग़म्बरों का मिशन लोकल था, मगर आख़िरी पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) का मिशन यूनीवर्सल है। आख़िरी पैग़म्बर पर ईश्वर का जो अन्तिम सन्देश (क़ुरआन) उतरा, उसकी हिफ़ाज़त की ज़िम्मेदारी स्वयं ईश्वर ने ली है। चैदह सौ साल से अधिक हो चुके हैं, मगर आज तक उसे बदला नहीं जा सका। ईश्वर का सन्देश अपनी असल शक्ल (मूलरूप) में मौजूद है, इसलिए अब ज़रूरत नहीं है कि कोई नया ईशदूत आए।
क़ुरआन का केन्द्रीय विषय इंसान है। क़ुरआन इंसान के बारे में ईश्वर की स्कीम को बताता है। क़ुरआन बताता है कि इंसान को सदैव के लिए पैदा किया गया है और उसे शाश्वत जीवन दिया गया है। ईश्वर ने इंसान के जीवन को दो भागों में बाँटा है : मौत से पहले का समय, जो अस्थाई है, इंसान के इम्तिहान के लिए है। मौत के बाद का समय, जो स्वर्ग या नरक के रूप में दुनिया में किए गए अच्छे या बुरे कर्मों का बदला मिलने के लिए है। यह कभी न ख़त्म होने वाला स्थाई दौर  है। इन दोनों के बीच में मौत एक तबादले (Transition) के रूप में है।
क़ुरआन बताता है कि दुनिया इंसान के लिए एक परीक्षास्थल है। इंसान की ज़िन्दगी का उद्देश्य ईश्वर की इबादत (उपासना) है। (क़ुरआन, 51:56) इबादत का अर्थ ईश्वर केन्द्रित जीवन (God-centred life) व्यतीत करना है। इबादत एक पार्ट-टाइम नहीं, बल्कि फुल टाइम अमल है, जो पैदाइश से लेकर मौत तक जारी रहता है। वास्तव में इंसान की पूरी ज़िन्दगी इबादत है, अगर वह ईश्वर की मर्ज़ी के अनुसार व्यतीत हो। ईश्वर की मर्ज़ी के अनुसार जीवन व्यतीत करने का आदी बनाने के लिए, आवश्यक था कि कुछ प्रशिक्षण भी हो, इसलिए नमाज़, रोज़ा (निराहार उपवास), ज़कात और हज को इसी प्रशिक्षण के रूप में रखा गया। इनमें समय की, एनर्जी की और दौलत की क़ुरबानी द्वारा इंसान को आध्यात्मिक उत्थान के लिए और उसे व्यावहारिक जीवन के लिए लाभदायक बनाने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। इस ट्रेनिंग को बार-बार रखा गया, ताकि इंसान को अच्छाई पर स्थिर रखा जा सके, क्योंकि इंसान अन्दर व बाहर से बदलने वाला अस्तित्व रखता है। 
ईश्वर सबसे बेहतर जानता है कि कौन-सी चीज़ इंसान के लिए लाभदायक है और कौन-सी हानिकारक। ईश्वर इंसान का भला चाहता है इसलिए उसने हर वह काम जिसके करने से इंसान स्वयं को हानि पहुँचाता, करना हराम (अवैध) ठहराया और हर उस काम को जिसके न करने से इंसान स्वयं को हानि पहुँचाता, इबादत कहा और उनका करना इंसान के लिए अनिवार्य कर दिया।
ईश्वर का अन्तिम सन्देश क़ुरआन, दुनिया में पहली बार रमज़ान के महीने में अवतरित होना शुरू हुआ। इसीलिए रमज़ान का महीना क़ुरआन का महीना कहलाया। इसे क़ुरआन के मानने वालों के लिए शुक्रगुज़ारी का महीना बना दिया गया और इस पूरे महीने रोज़े रखने अनिवार्य किए गए।
रोज़ा एक इबादत है। रोज़े को अरबी भाषा में ‘‘सौम’’ कहते हैं। इसका अर्थ ‘‘रुकने और चुप रहने’’ के हैं। क़ुरआन में इसे ‘‘सब्र’’ भी कहा गया है, जिसका अर्थ है ‘स्वयं पर नियंत्रण’ और स्थिरता व जमाव (Stability)। इस्लाम में रोज़े का मतलब होता है केवल ईश्वर के लिए, भोर से लेकर सूरज डूबने तक खाने-पीने, सभी बुराइयों (और पति-पत्नी का सहवास करने) से स्वयं को रोके रखना। अनिवार्य रोज़े, जो केवल रमज़ान के महीने में रखे जाते हैं और यह हर व्यस्क मुसलमान के लिए अनिवार्य हैं। क़ुरआन में कहा गया है— 
‘‘ऐ ईमान लाने वालो! तुम पर रोज़े अनिवार्य किए गए, जिस प्रकार तुम से पहले के लोगों पर किए गए थे, शायद कि तुम डर रखने वाले और परहेज़गार बन जाओ।’’ (क़ुरआन, 2:183)
रमज़ान का महीना जिसमें क़ुरआन उतारा गया लोगों के मार्गदर्शन के लिए, और मार्गदर्शन और सत्य-असत्य के अन्तर के प्रमाणों के साथ। अतः तुममें जो कोई इस महीने में मौजूद हो, उसे चाहिए कि उसके रोज़े रखे और जो बीमार हो या यात्रा में हो तो दूसरे दिनों से गिनती पूरी कर ले। ईश्वर तुम्हारे साथ आसानी चाहता है, वह तुम्हारे साथ सख़्ती और कठिनाई नहीं चाहता और चाहता है कि तुम संख्या पूरी कर लो और जो सीधा मार्ग तुम्हें दिखाया गया है, उस पर ईश्वर की बड़ाई प्रकट करो और ताकि तुम कृतज्ञ बनो।’’ (क़ुरआन, 2:185)
रोज़ा एक बहुत महत्वपूर्ण इबादत है। हर क़ौम में, हर पैग़म्बर ने रोज़ा रखने की बात कही। आज भी रोज़ा हर धर्म में किसी न किसी रूप में मौजूद है। क़ुरआन के अनुसार रोज़े का उद्देश्य इंसान में तक़वा या संयम (God Consciousness) पैदा करना है। तक़वा का एक अर्थ है—‘ईश्वर का डर’ और दूसरा अर्थ है—‘ज़िन्दगी में हमेशा एहतियात वाला तरीक़ा अपनाना।’ ईश्वर का डर एक ऐसी बात है जो इंसान को असावधान होने अर्थात् असफल होने से बचा लेता है।
कु़रआन की आयत (Verse) ‘ताकि तुम डर रखने वाले और परहेज़गार बन जाओ’—2:183, से पता चलता है कि रोज़ा, इंसान में ईश्वर का डर पैदा करता है और उसे परहेज़गार (संयमी) बनाता है। ईशदूत हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) ने फ़रमाया—
‘‘जिस व्यक्ति ने (रोज़े की हालत में) झूठ बोलना और उस पर अमल करना न छोड़ा, तो ईश्वर को इसकी कुछ आवश्यकता नहीं कि वह (रोज़ा रखकर) अपना खाना-पीना छोड़ दे।’’ (हदीस : बुख़ारी)
‘‘कितने ही रोज़ा रखने वाले ऐसे हैं, जिन्हें अपने रोज़े से भूख-प्यास के अतिरिक्त कुछ हासिल नहीं होता।’’ (हदीस : दारमी)
रोज़ा रखना इंसान की हर चीज़ को पाबन्द (नियमबद्ध) बनाता है। आँख का रोज़ा यह है कि जिस चीज़ को देखने से ईश्वर ने मना किया, उसे न देखें। कान का रोज़ा यह है कि जिस बात को सुनने से ईश्वर ने मना किया, उसे न सुनें। ज़ुबान का रोज़ा यह है कि जिस बात को बोलने से ईश्वर ने मना किया, उसे न बोलें। हाथ का रोज़ा यह है कि जिस काम को करने से ईश्वर ने मना किया, उसे न करें। पैर का रोज़ा यह है कि जिस तरफ़ जाने से ईश्वर ने मना किया, उधर न जाएं। दिमाग़ का रोज़ा यह है कि जिस बात को सोचने से ईश्वर ने मना किया, उसे न सोचें। इसी के साथ-साथ यह भी है कि जिन कामों को ईश्वर ने पसन्द किया, उन्हें किया जाए। केवल ईश्वर के बताए गए तरीक़े के अनुसार रोज़ा रखना ही इंसान को लाभ पहुँचाता है। ईशदूत हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) कहते हैं—
‘‘इंसान के हर अमल का सवाब (अच्छा बदला) दस गुना से सात सौ गुना तक बढ़ाया जाता है, मगर ईश्वर फ़रमाता है—रोज़ा इससे अलग है, क्योंकि वह मेरे लिए है और मैं ही इसका जितना चाहूँगा बदला दूँगा।’’ (हदीस : बुख़ारी व मुस्लिम)
रोज़े का इंसान के दिमाग़ और उसके शरीर दोनों पर बहुत अच्छा प्रभाव पड़ता है। रोज़ा एक वार्षिक ट्रेनिंग कोर्स है। जिसका उद्देश्य इंसान की ऐसी विशेष ट्रेनिंग करना है, जिसके बाद वह साल भर ‘स्वयं केन्द्रित जीवन’ के बजाए, ‘ईश्वर-केन्द्रित जीवन’ व्यतीत कर सके। रोज़ा इंसान में अनुशासन (Self Discipline) पैदा करता है, ताकि इंसान अपनी सोचों व कामों को सही दिशा दे सके। रोज़ा इंसान का स्वयं पर कन्ट्रोल ठीक करता है। इंसान के अन्दर ग़ुस्सा, ख़्वाहिश (इच्छा), लालच, भूख, सेक्स और दूसरी भावनाएं हैं। इनके साथ इंसान का दो में से एक ही रिश्ता हो सकता है: इंसान इन्हें कन्ट्रोल करे, या ये इंसान को कन्ट्रोल करें। पहली सूरत में लाभ और दूसरी में हानि है। रोज़ा इंसान को इन्हें क़ाबू करना सिखाता है। अर्थात् इंसान को जुर्म और पाप से बचा लेता है।
रोज़ा रखने के बाद इंसान का आत्मविश्वास और आत्मसंयम व संकल्प शक्ति (Will Power) बढ़ जाती है। इंसान जान लेता है कि जब वह खाना-पानी जैसी चीज़ों को दिन भर छोड़ सकता है, जिनके बिना जीवन संभव नहीं, तो वह बुरी बातों व आदतों को तो बड़ी आसानी से छोड़ सकता है। जो व्यक्ति भूख बर्दाश्त कर सकता है, वह दूसरी बातें भी बर्दाश्त (सहन) कर सकता है। रोज़ा इंसान में सहनशीलता के स्तर (level of Tolerance) को बढ़ाता है।
रोज़ा इंसान से स्वार्थपरता (Selfishness) और सुस्ती को दूर करता है। रोज़ा ईश्वर की नेमतों (खाना-पानी इत्यादि) के महत्व का एहसास दिलाता है। रोज़ा इंसान को ईश्वर का सच्चा शुक्रगुज़ार बन्दा बनता है। रोज़े के द्वारा इंसान को भूख-प्यास की तकलीफ़ का अनुभव कराया जाता है, ताकि वह भूखों की भूख और प्यासों की प्यास में उनका हमदर्द बन सके। रोज़ा इंसान में त्याग के स्तर (Level of Sacrifice) को बढ़ाता है।
इस तरह हम समझ सकते हैं कि रोज़ा ईश्वर का मार्गदर्शन मिलने पर उसकी बड़ाई प्रकट करने, उसका शुक्र अदा करने और परहेज़गार बनने के अतिरिक्त, न केवल इंसान के दिमाग़ बल्कि उसके शरीर पर भी बहुत अच्छा प्रभाव डालता है। ईशदूत हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) के शब्दों में हम कह सकते हैं—
‘‘हर चीज़ पर उसको पाक, पवित्र करने के लिए ज़कात है और (मानसिक व शारीरिक बीमारियों से पाक करने के लिए) शरीर की ज़कात (दान) रोज़ा है।’’ (हदीस : इब्ने माजा)

हज़रत : आदरणीय व्यक्तित्व के लिए उपाधि सूचक शब्द।

सल्ल॰ : हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) पर अल्लाह की रहमत व सलामती हो।
हदीस : अल्लाह के अन्तिम सन्देष्टा हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) के वचनों, कर्मों और तरीकों (ढंगों) को हदीस कहते हैं।