Wednesday, September 28, 2011

क़ुरआन को समझने के लिए ज़रूरी है कि उसकी आयतों को आगे पीछे की आयतों के साथ जोड कर पढ़ा जाए . In the context of Gadeer e khum

क़ुरआन अल्लाह का कलाम है और अल्लाह का वादा है कि इसकी हिफाज़त  हम करेंगे।
कौन है जो अल्लाह से बढ़कर सच्चा हो ?
कौन है जो अल्लाह से बढ कर ताकत रखता हो ?
क़ुरआन की हिफाजत करने वाला अल्लाह है, यही वजह है कि क़ुरआन में न तो कोई आयत कम हुई और न ही कोई आयत इसमें बढ़ाई जा सकी, इसकी ज़बान जिंदा ज़बान है, दुनिया भर में बोली और समझी जाती है। यही वजह है कि इसके अर्थ भी स्पष्ट हैं। इसी के साथ जिस शखिसयत पर यह कलाम नाज़िल हुआ, उसकी जिंदगी की तमाम ज़रूरी तफ्सीलात भी महफूज़  हैं। यही वजह है कि इसके अर्थ बदलने की कोशिशें भी आज तक कामयाब न हो सकीं। दुनिया की यह अकेली किताब है जिसे करोड़ों लोगों ने ज़बानी याद कर रखा है। इसे रोजाना पढ़ा जाता है और इसे पढ ने की इजाज त औरत-मर्द और ख़ास व आम हरेक को है। यहां तक कि जो लोग इस्लाम के अनुयायी नहीं हैं, वे भी इसे पढ  सकते हैं।
क़ुरआन का एक नाम कसौटी भी है। यह किताब सही-ग़लत में फ़र्क़  कर देती है। आप कोई भी बात लाएं और क़ुरआन पर पेश कर दें तो आप देखेंगे कि यह बिल्कुल साफ  बता देती है कि यह बात सही है या ग़लत। यहां तक कि बहुत सी बातें जो हदीस के नाम से मशहूर कर दी गईं या सही वाक ये में इज़ाफ़ा  करके उसका कुछ से कुछ बना दिया, उन्हें भी जब कुरआन पर पेश किया जाता है तो क़ुरआन हमारी बिल्कुल सही रहनुमाई करता है।
यह महफ़ूज किताब, जो कि एक कसौटी भी है, उन लोगों के इरादों को हमेशा ही नाकाम करती रही है जो कि लोगों को अल्लाह की हिदायत से हटाने की कोशिश करते रहे हैं। इसके लिए उन्होंने यह किया कि उन्होंने अपने मामलात को कुरआन पर पेश करने के बजाय क़ुरआन को ही अपने अक़ीदों पर पेश करना शुरू कर दिया। क़ुरआन की आयतों को आपसी रब्त से समझने के बजाय यहां-वहां से टुकड़े काट कर दूसरों को बताने लगे कि देखो जो बात हम मानते हैं, वह यहां से साबित होती है।
आज कुछ ग़ैर-मुस्लिम संगठन भी यही करते हैं कि युद्ध संबंधी आयतों को आगे पीछे से काट कर उठा लेते हैं ताकि उन पर ऐतराज़ किया जा सके .
सिर्फ़ ग़ैर-मुस्लिम ही नहीं बल्कि कुछ ऐसे लोग भी हैं, जिन्हें दुनिया मुसलमान के नाम से जानती है, वे भी यही करते हैं कि पूरी आयत को समझने के बजाय और उसे आस पास की आयतों से जोड़ कर देखने के बजाय, बीच में से एक टुकड़ा उठा लेते हैं क्योंकि ऐसा करने से उनके लिए उस वाक्य को अपने अर्थ पहनाना आसान हो जाता है। ऐसे लोग खुद भी गुमराह होते हैं और दूसरों को भी गुमराह करते हैं और गुमराह भी वही लोग होते हैं जो उनकी बात को कुरआन पर पेश नहीं करते।
क़ुरआन के दो मक़ामात  को इसी तरह से अपने अक़ीदे के मुताबिक  ढालने की कोशिश की गई और फिर पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के साथ हिजरत और जिहाद करने वाले बहुत से सहाबा रजि . के किरदार पर शक पैदा करने की कोशिश की, ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि यही वे लोग थे जिन्होंने कुरआन को संकलित किया था। 

इस्लाम की मुखालिफत करने वाला ग्रुप जब कुरआन में किसी भी तरह की तब्दीली करने से मायूस हो गया तो उसने यह तरीक़ा अख्तियर किया कि कुरआन में शक पैदा किया जाए और इसका तरीक़ा उन्हें यही समझ में आया कि जिन लोगों ने इसे संकलित किया, उनकी समझ और उनके अमल को दागदार और नाक़िस दिखाने की कोशिश की जाए और यह सब उन्होंने अक़ीदत  के चोले में किया। इसके नतीजे में बहुत से सादा दिल मुसलमान फंस गए और वे आज तक उन बातों को दोहराते रहते हैं जो कुरआन की नज़र से बातिल महज़  हैं।
वे दो आयतें तरतीबवार ये हैं -
# ( अलयौमा  अकमलतु लकुम दीनकुम व अतमम्तु अलैकुम नेअमती व रज़ीतु लकुमुल इस्लामा दीना ) सूरए माइदा आयत न.3
"आज मैंनें तुम्हारे दीन को पूर्ण कर दिया और तुम पर अपनी नेअमतों को भी तमाम किया और तुम्हारे लिए दीन इस्लाम को पसंद किया।” सूरह ए माइदा आयत नं..3

## ऐ रसूल! तुम्हारे रब की ओर से तुम पर जो कुछ उतारा गया है, उसे पहुँचा दो। यदि ऐसा न किया तो तुमने उसका सन्देश नहीं पहुँचाया। अल्लाह तुम्हें लोगों (की बुराइयों) से बचाएगा। निश्चय ही अल्लाह इनकार करनेवाले लोगों को मार्ग नहीं दिखाता .  सूरह ए माइदा आयत नं. 67

कहने वाले कहते हैं कि ये दोनों आयतें ग़दीर ए ख़ुम के मक़ाम पर नाज़िल हुईं और इन दोनों आयतों में पैग़म्बर हजरत मुहम्मद सल्ल. को अल्लाह यह हुक्म दे रहा है कि हज़रत अली की इमामत का ऐलान कर दीजिए। उनकी इमामत के ऐलान के साथ ही दीन मुकम्मल हुआ। 
इमामत से मुराद यह है कि इमाम भी अल्लाह की तरफ़ से ऐसे ही मामूर होता है जैसे कि नबी होता है और वह भी गुनाहों से ऐसे ही 'मासूम' होता है जैसे कि नबी होता है। नबी के बाद इत्तेबा सिर्फ़ उसी आदमी की करनी चाहिए, जिसे कि अल्लाह ने इमाम बनाया है। इमाम के अलावा किसी और की इत्तेबा करना जायज़ ही नहीं है।
हज़रत अली राज़ियाल्लाहु अन्हु के फ़ज़ाएल व मनाक़िब मुसल्लम हैं और वह अल्लाह के महबूबतरीन बन्दों में से हैं, इसमें कुछ शक नहीं है लेकिन इस तरह की बातें करना दीन में तहरीफ़ और ग़ुलू करना है .
हजरत अली रज़ि. की इमामत के लिए पहली दलील
"आज मैंनें तुम्हारे दीन को पूर्ण कर दिया और तुम पर अपनी नेअमतों को भी तमाम किया और तुम्हारे लिए दीन इस्लाम को पसंद किया।” सूरह ए माइदा आयत नं. 3


इन  दोनों में पहला तो केवल आयत का एक टुकड़ा है जो कि बीच से उठा लिया गया है और उसे अपनी तरफ  से अर्थ पहनाने की कोशिश की गई है। जब हम इस टुकड़े  को उसके मक़ाम से हटाए बिना पढ़ते  हैं तो पूरी आयत पढ़ते ही पता चल जाता है कि आयत के इस टुकड़े  का ताल्लुक  खाने-पीने में हलाल हराम चीज़ों वगैरह के अहकाम से है न कि किसी की इमामत के ऐलान से।
आगे पीछे की आयतें भी इसी विषय को बयान कर रही हैं यानि कि इस
मक़ाम पर कुरआन इतना स्पष्ट है कि किसी तरह की तावील से भी इस मक़ाम का ताल्लुक  इमामत के ऐलान से साबित नहीं किया जा सकता।
अलमाएदा की शुरू की पांच आयतें देखिए, इनमें ही एक टुकड़ा यह भी है।

ऐ ईमान लानेवालो! प्रतिबन्धों (प्रतिज्ञाओं, समझौतों आदि) का पूर्ण रूप से पालन करो। तुम्हारे लिए चौपायों की जाति के जानवर हलाल हैं सिवाय उनके जो तुम्हें बताए जा रहें हैं; लेकिन जब तुम इहराम की दशा में हो तो शिकार को हलाल न समझना। निस्संदेह अल्लाह जो चाहते है, आदेश देता है (1) 
ऐ ईमान लानेवालो! अल्लाह की निशानियों का अनादर न करो; न आदर के महीनों का, न क़ुरबानी के जानवरों का और न जानवरों का जिनका गरदनों में पट्टे पड़े हो और न उन लोगों का जो अपने रब के अनुग्रह और उसकी प्रसन्नता की चाह में प्रतिष्ठित गृह (काबा) को जाते हो। और जब इहराम की दशा से बाहर हो जाओ तो शिकार करो। और ऐसा न हो कि एक गिरोह की शत्रुता, जिसने तुम्हारे लिए प्रतिष्ठित घर का रास्ता बन्द कर दिया था, तुम्हें इस बात पर उभार दे कि तुम ज़्यादती करने लगो। हक़ अदा करने और ईश-भय के काम में तुम एक-दूसरे का सहयोग करो और हक़ मारने और ज़्यादती के काम में एक-दूसरे का सहयोग न करो। अल्लाह का डर रखो; निश्चय ही अल्लाह बड़ा कठोर दंड देनेवाला है (2)
तुम्हारे लिए हराम हुआ मुर्दार रक्त, सूअर का मांस और वह जानवर जिसपर अल्लाह के अतिरिक्त किसी और का नाम लिया गया हो और वह जो घुटकर या चोट खाकर या ऊँचाई से गिरकर या सींग लगने से मरा हो या जिसे किसी हिंसक पशु ने फाड़ खाया हो - सिवाय उसके जिसे तुमने ज़बह कर लिया हो - और वह किसी थान पर ज़बह कियी गया हो। और यह भी (तुम्हारे लिए हराम हैं) कि तीरो के द्वारा किस्मत मालूम करो। यह आज्ञा का उल्लंघन है - आज इनकार करनेवाले तुम्हारे धर्म की ओर से निराश हो चुके हैं तो तुम उनसे न डरो, बल्कि मुझसे डरो। आज मैंने तुम्हारे धर्म को पूर्ण कर दिया और तुमपर अपनी नेमत पूरी कर दी और मैंने तुम्हारे धर्म के रूप में इस्लाम को पसन्द किया - तो जो कोई भूख से विवश हो जाए, परन्तु गुनाह की ओर उसका झुकाव न हो, तो निश्चय ही अल्लाह अत्यन्त क्षमाशील, दयावान है (3)
वे तुमसे पूछते है कि "उनके लिए क्या हलाल है?" कह दो, "तुम्हारे लिए सारी अच्छी स्वच्छ चीज़ें हलाल है और जिन शिकारी जानवरों को तुमने सधे हुए शिकारी जानवर के रूप में सधा रखा हो - जिनको जैसे अल्लाह ने तुम्हें सिखाया हैं, सिखाते हो - वे जिस शिकार को तुम्हारे लिए पकड़े रखे, उसको खाओ और उसपर अल्लाह का नाम लो। और अल्लाह का डर रखो। निश्चय ही अल्लाह जल्द हिसाब लेनेवाला है।" (4)
 आज तुम्हारे लिए अच्छी स्वच्छ चीज़ें हलाल कर दी गई और जिन्हें किताब दी गई उनका भोजन भी तुम्हारे लिए हलाल है और तुम्हारा भोजन उनके लिए हलाल है और शरीफ़ और स्वतंत्र ईमानवाली स्त्रियाँ भी जो तुमसे पहले के किताबवालों में से हो, जबकि तुम उनका हक़ (मेहर) देकर उन्हें निकाह में लाओ। न तो यह काम स्वछन्द कामतृप्ति के लिए हो और न चोरी-छिपे याराना करने को। और जिस किसी ने ईमान से इनकार किया, उसका सारा किया-धरा अकारथ गया और वह आख़िरत में भी घाटे में रहेगा (5)
-सूरह ए माइदा आयत नं. 1 से 5 तक

ये सूरह ए माएदा की शुरू की पांच आयतें हैं. इनमें से हरेक आयत अपने आगे पीछे की आयत से जुडी हुई है . जो कुरान के हुक्म को जानना चाहते हैं वे हरेक आयत को उसके आगे पीछे की आयत से जोड़ कर उसका अर्थ समझते हैं और हिदायत पाते हैं , अल्लाह ऐसे ही लोगों को सीधे रास्ते की तरफ़रहनुमाई करता है. 

हजरत अली रज़ि. की इमामत के लिए दूसरी दलील
दूसरी दलील जिस आयत से दी जाती है, वह यह है:
'ऐ रसूल ! तुम्हारे रब की ओर से तुम पर जो कुछ उतारा गया है, उसे पहुँचा दो। यदि ऐसा न किया तो तुमने उसका सन्देश नहीं पहुँचाया। अल्लाह तुम्हें लोगों (की बुराइयों) से बचाएगा। निश्चय ही अल्लाह इनकार करनेवाले लोगों को मार्ग नहीं दिखाता.'  सूरए माइदा आयत न. (67)

इस आयत में कहीं हज़रत अली की इमामत का ज़िक्र नहीं है बल्कि इसमें पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से अल्लाह यह कह रहा है कि 'जो कुछ आप पर नाज़िल किया गया है उसे पहुंचा दीजिए' और फिर अगली आयत में अल्लाह बता भी रहा है कि क्या पहुंचाना है ?
इस आयत को आगे की आयत के साथ मिलाकर पढ़ लीजिए तो साफ हो जाएगा कि पहले अल्लाह ने पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से कहा कि जो कुछ आप पर नाजिल किया गया उसे पहुंचा दीजिए ताकि रिसालत का हक  अदा हो और फिर 'क़ुल' कह कर हुक्म भी दिया कि आप 'अहले किताब' (यानि यहूदियों और ईसाईयों)  से यह कह दीजिए।
 'ऐ रसूल! तुम्हारे रब की ओर से तुम पर जो कुछ उतारा गया है, उसे पहुँचा दो। यदि ऐसा न किया तो तुमने उसका सन्देश नहीं पहुँचाया। अल्लाह तुम्हें लोगों (की बुराइयों) से बचाएगा। निश्चय ही अल्लाह इनकार करनेवाले लोगों को मार्ग नहीं दिखाता . (67) 
कह दो, "ऐ किताबवालो ! तुम किसी भी चीज़ पर नहीं हो, जब तक कि तौरात और इंजील  को और जो कुछ तुम्हारे रब की ओर से तुम्हारी ओर अवतरित हुआ है, उसे क़ायम न रखो।" किन्तु (ऐ नबी!) तुम्हारे रब की ओर से तुम्हारी ओर जो कुछ अवतरित हुआ है, वह अवश्य ही उनमें से बहुतों की सरकशी और इनकार में अभिवृद्धि करनेवाला है। अतः तुम इनकार करनेवाले लोगों की दशा पर दुखी न होना .' (68)
सूरए माइदा आयत न. (67)(68)
यह बात भी काबिले ग़ौर है कि इन आयतों में अहले किताब का ज़िक्र  किया जा रहा है और हज्जतुल विदा से लौटते वक्त पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के साथ यहूदियों और ईसाईयों में से कोई भी नहीं था। जब उनमें से कोई साथ ही नहीं था तो उन्हें संबोधित करने वाली आयत ग़दीर ए ख़ुम में नाज़िल होने का औचित्य भी कुछ नहीं है।
इस तरह न सिर्फ यह पता चलता है कि हज़रत अली रज़ियाल्लाहु अन्हु की इमामत व मासूमियत के लिए इन आयतों कोई दलील नहीं है बल्कि यह भी पता चलता है इनके नुज़ूल का मक़ाम भी ग़दीर ए ख़ुम नहीं हो सकता।
आम तौर पर हम इस तरह की बातों से बचते हैं लेकिन जब हमें कहा गया कि गुमराही से बचने के लिए यह मानना ज़रूरी है कि हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के बाद इत्तेबा का हक  सिर्फ हज़रत अली रजि . ही रखते हैं और ये इस सिलसिले में कुछ दलीलें भी दी गईं और फिर हिंदी ब्लॉग जगत में कुछ पोस्ट्‌स भी इस सिलसिले में देखने में आईं तो फिर हमने जरूरी समझा कि इन दलीलों पर गौर जरूर करना चाहिए।
इन आयतों पर गौर करने के बाद पता चला कि आयतों के साथ खिलवाड़  किया जा रहा है और जो बात उनमें नहीं कही जा रही है, वह बात उनसे साबित करने की नाकाम कोशिश की जा रही है। इसके लिए आयत और उसके शब्दों को, दोनों को उनके मक़ाम से हटाया जा रहा है।
यह भी अजीब इत्तेफ़ाक़ है कि सूरह माइदा की जिस आयत नं. 3 67  के साथ अर्थ बदलने की यह कोशिश की जा रही है, जब हमने उन्हें पढ़ा तो उनके दरम्यान अल्लाह ने दो जगह बताया कि अल्लाह की किताब का अर्थ बदलने वाले कलाम को उसकी जगह से बदल डालते हैं।
'वे कलाम को उसकी जगह से बदल डालते हैं।' सूरह ए माइदा आयत नं. 13
'वे शब्दों को उनका स्थान निश्चित होने के बाद भी उनके स्थान से हटा देते हैं।' सूरह माइदा आयत नं. 41
अल्लाह ऐसे लोगों के बारे में कहता है कि
'ये वही लोग हैं जिनके दिलों को अल्लाह ने पाक करना नहीं चाहा। उनके लिए संसार में भी अपमान और तिरस्कार है और आखिरत में भी बड़ी  यातना है।'
जो आदमी कुरआन में शक करता है, वह बातिल है और जो आदमी असबाबे शक पैदा करता है, वह भी बातिल है।
क़ुरआन हक़ है और मुकम्मल तौर पर महफ़ूज़ है।
कुरआन के माअना अयां हैं और जो उनमें गौर व फिक्र करते हैं, अल्लाह उन्हें सीधे रास्ते की रहनुमाई करता है।
जो हक  और हक़ीक़त की तड़प रखते हैं, वे क़ुरआन को समझकर हिदायत पाते हैं।
अल्लाह हमारे दिलों में भी सच्चाई को पाने की सच्ची तड़प पैदा कर दे और हमारे दिलों को हरेक तरह के तास्सुब से पाक कर दे।
आमीन !