Thursday, March 31, 2011

तौहीद और शिर्क लेखक - मौलाना क़ारी तय्यब साहब Maulana Qari Tayyab Sahab

फ़-आउज़ुबिल्लाहि-मिनश्-शैतानिर्रजीम .
अर्थात मैं परमेश्वर की शरण में आता हूं शैतान फिटकारे हुए से .
बिस्मिल्लाहिर्-रहमानिर-रहीम .
अर्थात शुरू परमेश्वर के नाम से जो अत्यन्त दयावान सदा करूणाशील है.
1. क़ुल या अय्युहल काफ़िरून .
2. ला अआबुदु मा ताअ़बुदून .
3. वला अन्तुम  आबिदूना मा अआबुद .
4. वला अना आबिदुम्मा अ़बद्त्तुम .
5. वला अन्तुम आबिदूना मा अआबुद .
6. लकुम दीनुकुम वलिय दीन .
(सदक़ल्लाहुल अज़ीम, कुरआन, 109)

1. अर्थात आप (इन इन्कारियों से) से कह दीजिए कि ऐ इन्कारियो !
2. (मेरा और तुम्हारा तरीक़ा एक नहीं हो सकता और) न (तो फ़िलहाल) मैं तुम्हारे उपास्यों की पूजा करता हूं .
3. और न तुम मेरे उपास्य की पूजा-उपासना करते हो .
4. और न (भविष्य में) मैं तुम्हारे उपास्यों की पूजा करूंगा .
5. और न तुम मेरे उपास्य की पूजा करना चाहते हो .
6. तुम्हें तुम्हारा बदला मिलेगा और मुझे मेरा बदला मिलेगा .
(सत्य वचन है परमेश्वर का , अनुवाद कुरआन, 109)

धर्म का आधार
परमेश्वर के धर्म का आधार तौहीद अर्थात ‘एक ईश्वर के प्रति निष्ठा‘ पर है। इसी पर धर्म की बुनियाद है। ‘एक ईश्वर के प्रति निष्ठा‘ खंडित हो जाए तो धर्म बाक़ी नहीं रह सकता। इसलिए जब से धर्म है तब से ‘एक ईश्वर के प्रति निष्ठा‘ भी है। हज़रत आदम अलैहिस्सलाम (अर्थात उन पर शांति हो) इसी तौहीद को लेकर आए दीन के साथ और सभी पैग़म्बर अलैहिमुस्सलाम (अर्थात उन सब पर शांति हो) ने इसी तौहीद का संकल्प लिया अपनी क़ौमों से। जिसे परमेश्वर ने बताया -
शरअ़ लकुम मा वस्सा बिहि नूहावं-वल्लज़ी औहैना इलैका वमा वस्सैना बिहि इबराहीमा व मूसा व ईसा अन अक़ीमुद्दीना वला ततफ़र्रक़ू फ़ीहि .
अर्थात परमेश्वर ने तुम लोगों के लिए वही धर्म निर्धारित किया है जिसका उसने नूह को हुक्म दिया था और जिसकी हमने आप पर प्रकाशना की है और जिसका हमने इबराहीम और मूसा और ईसा को भी हुक्म दिया था कि धर्म को क़ायम रखो और उसमें फूट न डालना .
                                                                                                         (सूरा ए शूरा, 13)
इस आयत में कहा गया है कि परमेश्वर धर्म को पैदा किया, उसे भेजा और उसे हज़रत नूह अलैहिस्सलाम (अर्थात जल प्लावन वाले ऋषि मनु) के लिए निर्धारित किया और उसके बाद हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के लिए कहा ‘वल्लज़ी औहैना इलैका‘ और आपकी तरफ़ जो प्रकाशना हमने की वह भी धर्म और ‘एक ईश्वर के प्रति निष्ठा‘ का ही आदेश था और हज़रत इबराहीम अ., मूसा अ. और ईसा अ. भी इसी धर्म को लेकर आए और उन्होंने फ़रमाया -‘इस धर्म में फूट मत डालो‘। और फूट से बचने का रास्ता केवल ‘एक ईश्वर के प्रति निष्ठा‘ है। बहरहाल दीन एक है जो आदम अ. से चला और हज़रत मुहम्मद स. तक आया। आपने उसे पूरा किया और दुनिया को उसकी संपूर्णता के साथ दिया। इस पूरे धर्म का आधार ‘एक ईश्वर के प्रति निष्ठा‘ पर है। इसीलिए परमेश्वर ने हरेक पैग़म्बर से संकल्प लिया कि वह खुद भी तौहीद पर क़ायम रहें और अपनी अपनी क़ौमों को भी ‘एक ईश्वर के प्रति निष्ठा‘ पर क़ायम रखें। परमेश्वर ने कहा -‘वमा अर्सल्ना मिन क़ब्लिका मिर्रसूलिन इल्ला नूही इलैहि अन्नहु ला इलाहा इल्ला अना फ़-अआबुदून‘
कोई रसूल हमने आपसे पहले ऐसा नहीं भेजा कि जिसे हमने यह न बतला दिया हो कि ‘ला इलाहा इल्ला अना‘ मेरे सिवा कोई उपास्य नहीं, मेरी ही उपासना करो, मेरे ही सामने झुको।‘ पहली आयत में बताया कि धर्म एक है। आदम अ. और नूह अ. से लेकर हज़रत मुहम्मद स. तक और दूसरी आयत में बताया है कि इस धर्म का आधार ‘एक ईश्वर के प्रति निष्ठा‘ पर है, जिसका हरेक रसूल से वचन और संकल्प लिया गया है। इसलिए ‘एक ईश्वर के प्रति निष्ठा‘ ईश्वरीय धर्म की जड़ और बुनियाद है।
 
दो दर्जे
‘एक ईश्वर के प्रति निष्ठा‘ के दो दर्जे हैं। एक शिर्क का खण्डन और एक ‘एक ईश्वर के प्रति निष्ठा‘ का समर्थन। शिर्क का खण्डन करना और तौहीद को साबित करना। सारे पैग़म्बरों अ. ने शिर्क का खण्डन भी किया और तौहीद को साबित भी किया।
इस्लाम चूंकि ‘पूर्ण धर्म‘ है, इसलिए उसने शिर्क के जितने भी दर्जे थे और अक्ल में आ सकते थे उन सभी का खण्डन किया और पैग़म्बरों अ. ने सिर्फ़ शिर्क का खण्डन किया लेकिन हज़रत मुहम्मद स. ने शिर्क के कारणों का भी खण्डन किया कि जो चीज़ें शिर्क का कारण बन सकती हैं उनका भी उन्होंने खण्डन किया। तो गोया शिर्क के खण्डन में भी पूर्णता है और तौहीद के समर्थन में भी पूर्णता है इस युग में।
 
शिर्क की क़िस्में
एक शिर्क तो बिल्कुल खुला है यानि ईश्वर के वुजूद में किसी को शरीक कर देना, दो ईश्वर मान लेना जैसे कि पारसियों ने दो खुदा मान लिए, बहुदेववादियों ने लाखों करोड़ों मान लिए, यह ‘खुला शिर्क‘ है कि वुजूद में ही शरीक ठहरा दिया।
दूसरा शिर्क है सिफ़ात में (ईश्वर के गुणों में) कि वुजूद तो एक ही मान लिया लेकिन ईश्वर के गुणों को और चीज़ों में भी मान लिया जैसे कि अमुक आदमी बेटा दे सकता है, अमुक आदमी है रोज़ी देना उसके सुपुर्द है, अमुक आदमी है कि सेहत देना उसके सुपुर्द है। यह ‘गुणों में शिर्क‘ है। इसलिए कि औलाद देना, रोज़ी देना, सेहत देना, जीवन देना, मौत देना सब एक परमेश्वर के हाथ में है किसी और के हाथ में नहीं। तो जैसे वुजूद में शिर्क करना मना था ऐसे ही उसके गुणों में शिर्क भी मना है। इसी तरह से एक शिर्क है कर्म का, कि ईश्वर का वुजूद भी एक माना और गुण भी एक के लिए माने लेकिन उसके कामों में दूसरे को शरीक कर दिया। हालांकि परमेश्वर के कार्य भी यकता हैं कि कोई दूसरा उन्हें अंजाम नहीं दे सकता।
    ज़मीन व आसमान उसने पैदा किए बिना किसी की शिरकत के। इन्सान को उसने बनाया, जानवरों को उसने बनाया, वनस्पतियों को उसने बनाया बिना किसी की शिरकत के। यह नहीं कि उसने बनाने और रचने में कोई मदद ली हो दूसरे से। अकेले एक परमेश्वर ने सारे ब्रह्माण्ड को बनाया। यह सारी कायनात योग है ईश्वर के कामों का। उसी ने अपनी क्रियाशक्ति से इसे उत्पन्न किया।
‘ख़लक़स्समावाति वल अर्ज़ा व-ज-अ़लज़्ज़ुलुमाति वन्नूर‘ अर्थात ज़मीन व आसमान उसने बनाए प्रकाश और अंधेरे उसने पैदा किए।
‘ख़लक़ा लकुम मा फ़िल अर्ज़ि जमीअ़ा‘ अर्थात जो कुछ ज़मीन में है वह अल्लाह ही ने पैदा किया।
सृष्टि उसी ने उत्पन्न की, तो ज़मीन में चाहे जड़ हों, वनस्पति हों, जानवर हों सब ईश्वर ही के पैदा किए हुए हैं। इसमें किसी की शिरकत नहीं है। तो वुजूद में शिर्क भी मना है और उसके गुणों में शिर्क करना भी मना है और उसके कामों में शिर्क करना भी मना है।
 
तौहीद और परमेश्वर के नाम
जिस तरह शिर्क के अलग अलग दर्जे थे और उन सबका खण्डन इस्लाम ने किया, इसी तरह से तौहीद के विभिन्न दर्जे थे, इस्लाम ने उनका समर्थन किया।
वुजूद के विषय में तौहीद
यानि परमेश्वर का वुजूद एक और अनुपम है, उसका कोई शरीक नहीं है।
 
ईश्वरीय गुणों के विषय में तौहीद
कि गुण भी तन्हा उसी के हैं, जितने उत्कृष्ट गुण हैं, वे सब उसी के वुजूद के साथ ख़ास हैं । वे अनन्त हैं लेकिन इस्लामी शरीअत ने सैद्धांतिक रूप में निन्यानवे गुणों में फ़रमाया है। निन्यानवे नाम परमेश्वर के गुणवाचक नाम हैं और एक नाम निजी है, ‘अल्लाह‘ यह नाम उसके वुजूद का जलाल है और गुणवाचक नाम हैं निन्यानवे ‘हुवर्-रहमानिर्-रहीम अलमलिकुल क़ुद्दूसुस्सलामुल मोमिनुल मुहैयमिनुल अज़ीज़ुल जब्बारूल मुतकब्बिर...‘ ये सिफ़ाती नाम हैं। तो गुण अनन्त हैं, असीम हैं लेकिन उनका सार निन्यानवे में किया गया है।
    इमाम नववी रह. न अल्लाह के एक हज़ार गुणवाचक नाम ज़िक्र किए हैं लेकिन सही हदीसों में निन्यानवे आए हैं। मालूम होता है कि उन्होंने (इमाम नववी रह. ने) क्रियावाचक नामों को शामिल कर लिया है तो वे हज़ार बन गए। सृष्टा का रंग है वह गुणों में लेकिन ‘युकव्विरूल्लैला अलन्नहारि वयुकव्विरून्नहारा अलल्लैल‘ वह रात को लपेट देता है दिन पर और दिन को लपेट देता है रात पर, इससे ‘मुकव्विर‘ नाम निकला जो इस्तंबात से निकलता है साफ़ रिवायात से नहीं।
‘युक़ल्लिबुल्लाहल्लैला वन्नहार‘ परमेश्वर ही है जो तक़लीब करता है, अदल-बदल फ़रमा देता है कि दिन में से रात निकाल दी , रात में से दिन निकाल दिया। तो ‘युक़ल्लिबुल्लाहल्लैला वन्नहार‘ इससे इमाम नववी रह. ने एक नाम लिया ‘अलमुक़ल्लिब‘ तो यह इस्तंबात से निकाला हुआ नाम है। नस्से सरीह में नहीं है। इसी वास्ते आम तौर पर यह नाम नहीं लिया जाता बस काम का ज़िक्र किया जाता है।
‘युक़ल्लिबुल्लाहल्लैला वन्नहार‘ या जैसे हदीस में हज़रत मुहम्मद स. ने दुआ फ़रमाई कि ‘या मुक़ल्लिबुल क़ुलूब सब्बित क़ल्बि अ़ला दीनिक‘ अर्थात ऐ दिलों के पलटन देने वाले ! मेरे दिल को अपने दीन पर क़ायम रख। तो दिलों को पलटना और रात-दिन को पलटना, यह सब परमेश्वर ही के हाथ में है। तो इससे ‘मुक़ल्लिब‘ लफ़्ज़ निकलता है। या ‘अल्हम्दुलिल्लाहि फ़ातिरिस्समावाति वल अर्ज़‘ इसमें ‘फ़ातिर‘ का लफ़्ज़ आया है जिसका अर्थ है ‘सृष्टा‘, तो इमाम नववी रह. फ़ातिर को भी नामों में शामिल कर लिया।
‘जाइ़लुल मलाइकता रूसुलवं वली अज्निहतिन मस्ना व सुलासा व रूबाआ‘ अर्थात वही है जिसने पैदा किए हैं फ़रिश्ते कि जिनके बाज़ू दो-दो, तीन-तीन, और चार-चार हैं। और हज़रत जिब्रील अ. के छः सौ बाज़ू हैं। तो बाज़ुओं वाले फ़रिश्ते पैदा किए तो यहां ‘जाइ़ल‘ का लफ़्ज़ भी इमाम नववी रह. शुमार किया। इस तरह से एक हज़ार नाम हो जाते हैं लेकिन हदीसों में जो हैं वे निन्यानवे हैं।           (...जारी)

4 comments:

shyam gupta said...

---यदि हज़रत नूह अलैहिस्सलाम (अर्थात जल प्लावन वाले ऋषि मनु) हैं तो हज़रत मोहम्मद ....

-"--दूसरा शिर्क है सिफ़ात में (ईश्वर के गुणों में) कि वुजूद तो एक ही मान लिया लेकिन ईश्वर के गुणों को और चीज़ों में भी मान लिया."..यदि यह शिर्क है तो...

" जितने उत्कृष्ट गुण हैं, वे सब उसी के वुजूद के साथ ख़ास हैं । वे अनन्त हैं लेकिन इस्लामी शरीअत ने सैद्धांतिक रूप में निन्यानवे गुणों में फ़रमाया है। निन्यानवे नाम परमेश्वर के गुणवाचक नाम हैं और एक नाम निजी है..".... तो ये गुण-नाम कौन से हैं...
---एक दूसरे के विपरीत कथन है....

कुमार राधारमण said...

अच्छा है। नई शब्दावलियों से वाकिफ हुआ।

DR. ANWER JAMAL said...

@ कुमार राधारमण जी ! आपका शुक्रिया।

विरोधाभास का मुग़ालता नाहक़ है
@ डा. श्याम गुप्ता जी ! हज़रत मुहम्मद साहब स. अल्लाह के दूत हैं और उसकी ओर मार्ग दिखाने वाले ईश्वर की ओर से प्रमाणित पथप्रदर्शक जैसे कि हज़रत नूह अलैहिस्सलाम थे। धर्म के जो सिद्धांत हज़रत नूह अलैहिस्सलाम अर्थात जल प्लावन वाले महर्षि मनु ने सिखाए थे, जब जगत से उनका लोप हो गया और अनाचार का लोप हो गया तो अलग-अलग ज़मानों में, अलग-अलग इलाक़ों में बहुत से पथप्रदर्शक रसूल और नबी हुए हैं और उनके पदचिन्हों पर चलने वाले सत्पुरूषों-वलियों ने उनके बाद आज तक धर्म की चेतना को बचाए रखा है।
ईश्वर हमेशा है और हमेशा रहेगा। उसी ने सृष्टि को पैदा किया है और वही उसका पालन करता है। नफ़ा-नुक्सान केवल उसी के हाथ में है। हरेक चीज़ केवल उसी के अधीन है। वही सच्चा राजा है, उपासना का वही एकमात्र अधिकारी है। वह सर्वज्ञ है। ये कुछ गुण ऐसे हैं जो किसी सृष्टि में नहीं हो सकते। सृष्टि में इन गुणों को मानना वर्जित है। जो ऐसा करता है वह किसी सृष्टि को ईश्वर के गुणों में शरीक करता है जो कि असत्य और भ्रम है।
परमेश्वर के लिए बहुत से नाम हरेक ज़बान में हैं। अरबी भाषा में उसके अस्तित्व के बोध के ‘अल्लाह‘ नाम लिया जाता है। उसके गुणों और उसकी सिफ़तों को बयान करने के लिए रब, मालिक, रहीम, करीम, लतीफ़, ख़बीर, अलीम, ख़ालिक़, फ़ातिर और नूर आदि नाम लिए जाते हैं।
इनमें से किस बात में आपको विरोधाभास का मुग़ालता नाहक़ हुआ ?

vidhya said...

अच्छा है। नई शब्दावलियों से वाकिफ हुआ।