कलिमा ए तय्यिबा के इक़रार के बाद ज़कात इसलाम का तीसरा स्तंभ है और इसकी
अहमियत का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि क़ुरआन मजीद में नमाज़
क़ायम करने के हुक्म के साथ बार बार ज़कात अदा करने का हुक्म दिया गया है।
ज़कात का मक़सद इसलामी समाज में मालदार लोगों से माल लेकर ग़रीब लोगों की
आर्थिक रूप से मदद करना है ताकि ग़रीबी का ख़ात्मा हो। आज मुसलमानों में जो
मुफ़लिसी और ग़रीबी हमारे समाज में मौजूद है वह इस बात का सुबूत है कि
ज़कात की सही अदायगी नहीं हो रही है और वह असल हक़दारों तक पूरी तरह नहीं
पहुंच रही है। आम तौर से लोग इस बात से नावाक़िफ़ हैं कि ज़कात लेने के
हक़दार कौन कौन लोग हैं और ज़कात किन लोगों पर फ़र्ज़ है ?हर वह शख्स जिसके
पास साढ़े सात तोला सोना या 52 तोला चांदी या इस निसाब के मूल्य जितने माल
पर साल गुज़र जाए तो उसे उस का चालीसवां हिस्सा यानि ढाई प्रतिशत ज़कात
अदा करनी फ़र्ज़ है। क़ुरआन व हदीस में ज़कात को सदक़ा भी कहा गया है। सूरा
ए तौबा की 9वीं आयत का तर्जुमा है-‘‘ज़कात जो हक़ है वह हक़ है फ़ुक़रा
(मुफ़लिसों) का और मसाकीन (मुहताजों) का और आमिलीन (ज़कात के काम में जाने
वालों) का और मौल्लिफ़तुल क़ुलूब (ऐसे ग़ैर मुस्लिम जिनकी दिलजोई की ज़रूरत
हो) का और रिक़ाब (गर्दन छुड़ाने में) का आज़िमीन (क़र्ज़दार) का और
सबीलिल्लाह (अल्लाह की राह में जानतोड़ संघर्ष करने वालों) का और
इब्नुस्सबील (मुसाफ़िर जो सफ़र में ज़रूरतमंद हो)‘‘क़ुरआन पाक के इन
अहकामात के बारे में हदीस शरीफ़ में स्पष्ट किया गया है कि अल्लाह के रसूल
सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया कि अल्लाह तआला ने ज़कात की तक़सीम को
किसी नबी या ग़ैर नबी की मर्ज़ी पर नहीं छोड़ा बल्कि अल्लाह ने ख़ुद उसके
मसारिफ़ मुतय्यन कर दिए हैं जो 8 हैं। लिहाज़ा यह ज़रूरी है कि इस बात की
तहक़ीक़ कर ली जाए कि जिन्हें हम ज़कात दे रहे हैं वे क़ुरआन व हदीस की रू
से उसके मुस्तहिक़ हैं और हमारी ज़कात उपरोक्त 8 मदों मे ही अदा हो रही
है।एक हदीस में है कि एक शख्स ने अल्लाह के रसूल से कुछ माल तलब किया तो
हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया कि ‘‘मेरे पास सदक़ा का माल है,
अगर तुम उसके मुस्तहिक़ हो तो दे सकता हूं वर्ना नहीं‘‘, यानि ज़कात देते
वक्त हक़ीक़त जानना इस हदीस से साबित है। ‘फ़ुक़रा‘ वे लोग हैं जिनके पास
ज़िन्दगी की ज़रूरतें पूरी करने का सामान नहीं है और खाने पीने से भी
मुहताज हैं लेकिन असल फ़ुक़रा की शान सूरा ए बक़रा की 273वीं आयत में
अल्लाह तआला ने यूं बयान फ़रमाई है-भावार्थ-‘‘वे फ़ुक़रा जो अल्लाह की राह
में रोक दिए गए हैं, जो मुल्क में चल नहीं सकते, नादान लोग उनके सवाल न
करने की वजह से उन्हें मालदार ख़याल करते हैं। आप उनके चेहरे देखकर उन्हें
पहचान लेंगे क़ियाफ़ा से। वे लोगों से लिपट कर सवाल नहीं करते। तुम जो कुछ
माल ख़र्च करो तो अल्लाह उसका जानने वाला है।‘‘ इसी तरह मिस्कीन की तारीफ़
हदीस शरीफ़ में यह है कि हुज़ून नबी ए करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने
फ़रमाया कि दरअसल मिस्कीन तो वह है कि जिसके पास इतना माल न हो जो उसे
किफ़ायत कर जाए और कोई उसका हाल भी न जानता हो कि उसे ख़ैरात दे दे और न
लोगों से ख़ुद सवाल करे।(सही बुख़ारी किताबुज़्जकात)दअसल ज़कात का मक़सद ही
यह है कि ग़रीब और नादार लोगों और ज़रूरतमंदों की ज़रूरत पूरी की जाए और
अपने आस पास के लोगों, रिश्तेदारों पड़ोसियों, यतीमों, विधवाओं, ग़रीब
विद्यार्थियों, ज़रूरतमंद मुसाफ़िरों, क़र्ज़दारों की ख़बरगीरी की जाए और
ज़कात के मुस्तहिक़ीन की तहक़ीक़ करके उन्हें ज़कात दी जाए।
लेखक -
प्रोफ़ेसर बसीर अहमद,
राष्ट्रीय सहारा उर्दू दिनांक 27 जुलाई 2012 पृष्ठ
10, लेख ‘ क़ुरआन व हदीस की रौशनी में ज़कात के मुस्तहिक़ीन ‘ का एक अंश