tag:blogger.com,1999:blog-2681469310659558847.post4684372267007450615..comments2023-10-16T01:37:33.157-07:00Comments on इसलाम धर्म: क़ुरआन को समझने के लिए ज़रूरी है कि उसकी आयतों को आगे पीछे की आयतों के साथ जोड कर पढ़ा जाए . In the context of Gadeer e khumDR. ANWER JAMALhttp://www.blogger.com/profile/06580908383235507512noreply@blogger.comBlogger8125tag:blogger.com,1999:blog-2681469310659558847.post-42714479049314114252011-09-29T08:47:47.885-07:002011-09-29T08:47:47.885-07:00शायद कहने गुंजाइश ही हमने नहीं छोड़ी है।
हमने साफ ...<b>शायद</b> कहने गुंजाइश ही हमने नहीं छोड़ी है।<br />हमने साफ कहा है कि<br /><b>अल्लाह ने दो जगह बताया कि अल्लाह की किताब का अर्थ बदलने वाले कलाम को उसकी जगह से बदल डालते हैं।<br />'वे कलाम को उसकी जगह से बदल डालते हैं।' सूरह ए माइदा आयत नं. 13<br />'वे शब्दों को उनका स्थान निश्चित होने के बाद भी उनके स्थान से हटा देते हैं।' सूरह माइदा आयत नं. 41</b><br /><br />पूरी आयत नक़ल करने के बजाय हमने ये शब्द महज इशारे के लिए लिख दिए हैं ताकि कुरआन में ढूंढने वालों के लिए आसानी हो जाए, ऊपर हम कह ही चुके हैं कि आयतों को आगे पीछे की आयतों के साथ मिलाकर पढना चाहिए तभी सही मतलब समझ में आएगा।<br />जो उसूल हमने बयान किया है, यह उसूल भी उलमा का ही बयान करदा है और दुनिया में एक भी हक्कानी आलिम इस उसूल को गलत बताने वाला मौजूद नहीं है।<br />अब आप हमारी बताई आयतों को आगे पीछे की आयतों से मिलाकर पढ लीजिए और अगर कुछ और मतलब निकलता हो तो हमें भी बताइये।<br /><br />हदीस की तरफ रूजू करने की जरूरत वहां आती है जहां कुरआन मुब्हम हो लेकिन जहां कुरआन किसी बात को खोलकर बयान कर दे तो फिर हदीस की तरफ रूजू करने की जरूरत ही नहीं रहती।<br />इस तरीके से नए फिरके नहीं बनते अलबत्ता पहले से बने बनाए फिरके जरूर खत्म हो जाएंगे। जो लोग उन्हें खत्म होते नहीं देखना चाहते, वे हमेशा अपने इखतेलाफात को कुरआन पर पेश करने से पहलूतही करेंगे।DR. ANWER JAMALhttps://www.blogger.com/profile/06580908383235507512noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2681469310659558847.post-45888683358158734972011-09-28T22:11:07.246-07:002011-09-28T22:11:07.246-07:00हदीस को कुरान से मिला कर देखो और अगर यह कुरान से अ...हदीस को कुरान से मिला कर देखो और अगर यह कुरान से अलग दिखे तो उस हदीस को मानने से इनकार कर दो और इसी को उसूल बनाते हुई बड़े बड़े उलेमाओं ने हदीस की सहीह तैयार की, मज़मून लिखे और नतीजा भी निकाला कि कुरान में क्या लिखा है और कोई हदीस कुरान से मिलती है या नहीं.<br /><br />हदीस को कुरान से मिलाने का काम उलेमा किया करते हैं और वो भी दलीलों के साथ.हर इंसान खुद को उलेमा ए दीन समझ लेगा तो हजारों फिरके और भी बन जाएंगे.<br />आप जब भी कोई बात इस्लाम के मसले पे कहें तो हवाला हदीस और उलेमा कि किताबों का अवश्य दें,S.M.Masoomhttps://www.blogger.com/profile/00229817373609457341noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2681469310659558847.post-56732932035821125422011-09-28T22:01:48.104-07:002011-09-28T22:01:48.104-07:00आक कि ज़िक्र कि हुई यह तो आयतें क्या कह रही हैं?
&#...आक कि ज़िक्र कि हुई यह तो आयतें क्या कह रही हैं?<br />'वे कलाम को उसकी जगह से बदल डालते हैं।' सूरह ए माइदा आयत नं. 13<br />'वे शब्दों को उनका स्थान निश्चित होने के बाद भी उनके स्थान से हटा देते हैं।' सूरह माइदा आयत नं. ४१<br />आप शायद यह कहना चाहते हैं कि मुनाफ़िक़ ऐसे काम किया करता है. वो कलाम कि जगह भी बदल सकता है और शब्दों के स्थान निश्चित होने के बावजूद उसे जगह से हटा सकता है. ख्याल रहे सूरह माइदा आयत नं. ४१ में तौरेत में तहरीफ़ करने वालों का ज़िक्र है.<br /><br />और आपने जिसे आयात १३ का दर्जा दे के पेश किया है वो सिर्फ आयात १३ का एक छोटा सा हिस्सा है. एक तरफ तो आप कुरान कि किसी आयात को समझने के लिए उसके आगे पीछे कि आयातों को समझने कि हिदायत देते हैं और दूसरी तरफ किसी सूरा का एक छोटा सा हिस्सा दे के दलील बनाने कि कोशिश करते हैं. यह सही नहीं.<br /><br />जब तक मुसलमान अपने ख्यालातों को इस्लाम बनाने कि कोशिश करता रहेगा वो दूसरों को नसीहत और कुरान , हदीस का इस्तेमाल अपने ख्यालात को इस्लाम बनाने कि कोशिश करता रहे गा और सिरात ए मुस्तकीम से दूर रहे गा.S.M.Masoomhttps://www.blogger.com/profile/00229817373609457341noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2681469310659558847.post-10544917799269929092011-09-28T21:32:01.217-07:002011-09-28T21:32:01.217-07:00यह सच है कि हदीसें लाखों हैं और उनके संकलन भी बहुत...यह सच है कि हदीसें लाखों हैं और उनके संकलन भी बहुत से हैं और उनमें गौर व फिक्र करने वाले उलमा ए दीन के दरम्यान आपस में इखतेलाफ़ भी है और उस इखतेलाफ को हल करने का एकमात्र तरीका भी यही है कि वे जिन मामलों में आपस में इखतेलाफ कर रहे हैं, उन सभी मामलात को खुलूस के साथ अल्लाह के महफूज कलाम पर पेश किया जाए, ऐसा करते ही सारे बुनियादी इखतेलाफ खत्म हो जाते हैं। <br />हमने इसी उसूल से काम लिया है और यह उसूल हमने अपने दिल से ईजाद नहीं किया है बल्कि अल्लाह ने इसी उसूल की तालीम दी है।<br />जो अल्लाह के दिए हुए उसूल पर चलता है, वह अल्लाह के दीन पर चलता है और जो अल्लाह के दीन पर नहीं चलता वह अपनी खवाहिश पर चलता है और नफस की खवाहिश इंसान को भटका देती है, <br />इसमें कुछ शक नहीं है।DR. ANWER JAMALhttps://www.blogger.com/profile/06580908383235507512noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2681469310659558847.post-87197701753667382182011-09-28T21:15:40.768-07:002011-09-28T21:15:40.768-07:00आपके इस लेख़ में ना तो किसी उलेमा कि तहकीक का ज़िक्...आपके इस लेख़ में ना तो किसी उलेमा कि तहकीक का ज़िक्र है और ना ही कीई हदीस का हवाल दिया गया है. ऐसे में यह आप का जाती ख्याल तो कहा जा सकता है लेकिन औरों के लिए हुज्जत नहीं बन सकता. होता यह है कि मसलन सहीह बुखारी या सहीह तिरमिज़ी या बिहार , या मुसनद या सुनने इब्ने माजह इत्यादि किताबों से जब भी किसी हदीस का हवाला दिया जाता है तो आज का मुसलमान सब से पहले यह देखता है कि उसकी नज़र में सच क्या है? जो उसे ग़लत लगता है कह देता है इस किताब कि इस हदीस को हम नहीं मानते और जो उसकी नज़र में सही लगता है उसी किताब कि उस हदीस को मानने का दवा करता है और नतीजे में वो खुद के बनाये इस्लाम को मान ने वाला मुसलमान बन के रह जाता है. मिसाल के तौर पे यह दो लेख़ , इन मसलों में मुसलमानों में ज़रा सा इख्तेलाफ है और इन लेखों में एक से एक मोतबर हदीस और उलेमाओं का हवाल भी दिया गया है लेकिन जो इस को नहीं मानते वो इन बातों को सिरे से मानने से इनकार कर देते हैं. और इन्ही उलेमाओं कि वो बातें जो उनको सही लगती हैं मान ने का दवा करते हैं. नतीजे में मसला पेचीदा हो जाता है और हल नहीं निकल पाता <br /><br /><br /><br />http://smma59.wordpress.com/2011/09/29/the-companions-of-kisa<br /><br />THE COMPANIONS OF KISA<br /><br />http://islam.amankapaigham.com/2011/09/blog-post_8981.html<br /><br />GHADEERS.M.Masoomhttps://www.blogger.com/profile/00229817373609457341noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2681469310659558847.post-58120149943093495432011-09-28T19:22:52.711-07:002011-09-28T19:22:52.711-07:00जो शखस यह कहता है कि
'मैं किसी हदीस को नहीं म...जो शखस यह कहता है कि <br /><b>'मैं किसी हदीस को नहीं मानता वह भी बातिल है।'</b><br />हदीस को मानना लाज़िम है। <br /><br />किस हदीस को क्या दर्जा दिया जाए ?<br />किस हदीस से अकाएद व अहकाम लिए जाएं और कौन सी हदीसें अहकाम लेने के लिए मौजू नहीं हैं लेकिन उनसे फजाएल के बाब में काम लिया जा सकता है ?<br />इस विषय में भी उलमा ए हक की जमाअत ने बाकायदा तहकीक की है और हरेक अम्र को साफ कर दिया है। इसके बाद किसी के लिए यह कहने की कोई गुंजाइश ही नहीं बचती कि 'मैं किसी हदीस को नहीं मानता।'DR. ANWER JAMALhttps://www.blogger.com/profile/06580908383235507512noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2681469310659558847.post-48727950882046383862011-09-28T10:50:36.332-07:002011-09-28T10:50:36.332-07:00Any one who believes that there has been an additi...Any one who believes that there has been an addition, omission or<br />interpolation in the Qur'an is indeed misguided, and if he persists in that<br />belief, he commits a sin by dishonouring the word of Allah.<br /><br />Scholars of both Sunni and Shia schools have written about the change<br />having occurred. They have been critically studied and their errors have<br />been made manifest. Asgharali M M Jaffer<br /><br />The Shi`ah ‘ulama’ and maraji’ al-taqlid generally reject the belief in tahrif. The works that have been written on this subject are so many that mentioning them is not an easy task and would need a separate section. Now, for the sake of information, it will suffice to mention some of them below:<br /><br />1. Ayatullah Riya’ ad-Din Araki, Al-Usul, vol. 3, p. 93;<br /><br />2. Ayatullah Musawi Bujnurdi, Muntahi’l-Usul, vol. 2, p. 81;<br /><br />3. Firuzabadi, ‘Inayah al-Usul, vol. 3, p. 120; and<br /><br />4. Akhund Khurasani, Kifayah al-Usul, vol. 2, p. 63.<br /><br />Ayatullah al-’Uzma Sayyid Abu’l-Qasim al-Khu’i says in this regard: Tahrif of the Qur’an in the sense of the deletion of some of its verses or words is a fictitious affair as there is no truth in it.<br />http://smma59.wordpress.com/2011/09/28/ayatollah-jawadi-and-tahreef-quran/S.M.Masoomhttps://www.blogger.com/profile/00229817373609457341noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-2681469310659558847.post-85219682379510920382011-09-28T10:09:13.247-07:002011-09-28T10:09:13.247-07:00इस्लाम के साथ सबसे बड़ा मज़ाक तो यह हुआ है कि हर इ...इस्लाम के साथ सबसे बड़ा मज़ाक तो यह हुआ है कि हर इंसान खुद कि दलीलों को हुज्जत मान लेता है. वो यह समझता है जो नतीजा उसने निकाला है वही सही है बाकी दूसरों के नतीजे ग़लत हैं. और बहुत बार अपनी इस जिद में इस्लाम के बड़े बड़े अहले सुन्नत और शिया के उलेमा की तहकीक को साजिश करार दे देता है और मानने से इनकार कर देता है. ऐसा इसलिए होता है क़ि आज हर शख्स अपना एक इस्लाम बनाये खड़ा है.<br /><br />जब उनसे कहो यह हदीस हज़रत मुहम्मद (स.अ.व) ने बयान क़ि और यह इस शिया और सुन्नी मुस्लिम्स क़ि सहीह हदीसों में कही गयी है तो यह कहते हैं वो नहीं मानते किसी हदीस को. जब इनसे कहो जो बात हदीस में है वो कुरान में भी है तो यह कुरान के मायने को बदलने क़ि कोशिश करते हैं जिस से वो हदीस से मिलती हुई ना दिखे.<br /><br />ऐसा इसलिए होता है क्यों क़ि वो सच क़ि तहकीक करने के पहले नतीजा निकाल चुके होते हैं और हर हदीस और कुरान के तर्जुमे को अपने बनाये सच के मुताबिक तौलते हैं. और जाने या अनजाने में एलान यह कर देते हैं क़ि ना तो कोई हदीस बयान करने वाला सही हैं ना कुरान का तर्जुमा करने वाला सही हैं. सही है सिर्फ और सिर्फ इनका खुद का निकाला नतीजा.<br /><br /><br />इनसे आप सिर्फ एक सवाल करें क़ि भाई आप को सच बताने के लिए इस्लाम क़ि तारीख, कुरान का तर्जुमा समझाने के लिए क्या किया जाए? आप ही बता दें क़ि किस शख्स का कुरान का तर्जुमा सही है और कौन सी हदीस क़ि किताब काबिल ए एतबार है. तो यह या तो जवाब नहीं देंगे और अगर देंगे तो यही कहेंगे क़ि जो यह मानते हैं वही सही है.<br /><br />वो जो मानते हैं उसकी दलील में ना तो हदीस दी जाती हैं या किसी उलेमा की तस्दीक और यह भी सच है की जब कुरान या हदीस नाजिल हुई तो यह खुद मोजूद नहीं थे. ऐसे में सच की तलाश की जगह गुमराही ही हाथ लगती हैं और दीन ए इलाही की जगह खुद के मज़हब को मानने वाले मुसलमान बन के रह जाते हैं.<br /><br />ऐसे लोग ज़ालिम का साथ देते, ज़ालिम के गुनाह को हल्का करते, ज़ालिम के हक़ में दुआ करते और रसूल ए खुदा (स.अव) के घराने को शहीद करने वालों से हमदर्दी रखते , मिल जाया करते हैं.'S.M.Masoomhttps://www.blogger.com/profile/00229817373609457341noreply@blogger.com